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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 17
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    ते घेद॑ग्ने स्वा॒ध्यो॒३॒॑ ये त्वा॑ विप्र निदधि॒रे नृ॒चक्ष॑सम् । विप्रा॑सो देव सु॒क्रतु॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । घ॒ । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽआ॒ध्यः॑ । ये । त्वा॒ । वि॒प्र॒ । नि॒ऽद॒धि॒रे । नृ॒ऽचक्ष॑सम् । विप्रा॑सः । दे॒व॒ । सु॒ऽक्रतु॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते घेदग्ने स्वाध्यो३ ये त्वा विप्र निदधिरे नृचक्षसम् । विप्रासो देव सुक्रतुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते । घ । अग्ने । सुऽआध्यः । ये । त्वा । विप्र । निऽदधिरे । नृऽचक्षसम् । विप्रासः । देव । सुऽक्रतुम् ॥ ८.१९.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 17
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (विप्र) सर्वज्ञ (देव) द्योतमान (अग्ने) परमात्मन् ! (ते, घ, इत्) त एव हि (स्वाध्यः) सुध्यानवन्तो भवन्ति (ये, विप्रासः) ये विद्वांसः (नृचक्षसम्) मनुष्याणां द्रष्टारम् (सुक्रतुम्) शोभनकर्माणम् (त्वा, निदधिरे) त्वामन्तःकरणे निदधति ॥१७॥

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    विषयः

    तदीयस्तुतिं दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे अग्ने=सर्वगत परमात्मन् ! हे विप्र=विशेषेण परिपूर्ण देवेश ! इद्=एवार्थः । घ=चार्थः । ते घेत्=त एव मनुष्याः । स्वाध्यः=सुष्ठु आध्यः=आसमन्ताद् ध्यानकर्तारः । त एव विप्रासः=मेधाविनो बुद्धिमन्तः । ये उपासकाः । नृचक्षसम्=नृणां मनुष्याणां चक्षसम्=द्रष्टारमुपदेष्टारञ्च । सुक्रतुम्=सुकर्त्तारम् । त्वा=त्वां हृदये । निदधिरे=नितरां दधति ॥१७ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (विप्र) हे ज्ञान से पूरित (देव) द्योतमान (अग्ने) परमात्मन् ! (ते, घ, इत्) वे ही निश्चय (स्वाध्यः) शोभनध्यानवाले होते हैं, (ये, विप्रासः) जो विद्वान् (नृचक्षसम्) सब मनुष्यों के द्रष्टा (सुक्रतुम्) शुभकर्मवाले (त्वा) आपको (निदधिरे) अन्तःकरण में निवासित करते हैं ॥१७॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा स्वज्ञानशक्ति से सर्वत्र पूरित है, जो सूर्यादिकों में प्रविष्ट होकर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित कर रहा है, जिसके कर्म सबसे अधिक तथा दुर्ज्ञेय हैं, उसी का शुद्धचित्त से ध्यान करके मनुष्य दीर्घकर्मों में समर्थ हो सकता है, अन्यथा नहीं ॥१७॥

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    विषय

    उसकी स्तुति दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वगत ! (विप्र) हे सर्वत्र परिपूर्ण ! (देव) परमदेव ! (ते) वे (घ+इत्) ही उपासक निश्चय (स्वाध्यः) अच्छे प्रकार ध्यान करनेवाले हैं और (विप्रासः) वे ही बुद्धिमान् हैं, जो (नृचक्षसम्) मनुष्यों के सकल कर्मों को देखनेवाले और उपदेष्टा और (सुक्रतुम्) जगत् के कर्त्ता-धर्त्ता (त्वा) तुझको (नि+दधिरे) योगावस्थित हो हृदय में रखते हैं ॥१७ ॥

    भावार्थ

    परमात्मा को हृदयप्रदेश में स्थापित करे, अग्निहोत्रादि शुभ कर्म सदा किया करे, इत्यादि वाक्यों का आशय यही है कि उसकी आज्ञा का सदा पालन करे, कभी अनवहित लुब्ध और वशीभूत होकर भी उसका निरादर न करे । उसकी उपासना तब ही समझी जा सकती है, जब उपासक भी वैसा ही हो । शुद्धता, पवित्रता और उदारत्वादि ईश्वरीय गुण अपने में धारण कर प्रतिदिन बढ़ाता जाए ॥१७ ॥

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    विषय

    नेता के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( विप्र ) विद्वन् ! हे विविध विद्याओं से पूर्ण ! निष्णात ! ( ये ) जो ( त्वा ) तुझ को ( नृ-चक्षसम् ) समस्त मनुष्यों पर द्रष्टा रूप से (निदधिरे) नियत करते और निश्चयपूर्वक जानते हैं और ( ये विप्रासः ) जो विद्वान् लोग हे ( देव ) दानशील ! हे प्रकाशस्वरूप, सत्य प्रकाशक ! ( त्वा सुक्रतुं निदधिरे ) तुझ उत्तम कर्म और ज्ञान वाले, तुझको स्थिर करते हैं ( ते घ इत् ) वे ही हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! ( स्वाध्यः ) सुख पूर्वक तेरा ध्यान करने वाले तुझे चरण और अग्निवत् हृदय वेदि में धारण करने वाले होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    नृचक्षा-सुक्रतु

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (ते) = वे (घा इत्) = ही निश्चय से (स्वाध्यः) = उत्तम ध्यानवाले होते हैं, (ये) = जो हे (विप्र) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले प्रभो ! (त्वा) = आपको (निदधिरे) = अपने हृदयों में धारण करते हैं। [२] हे (देव) = प्रकाशमय प्रभो ! उत्तम ध्याता वे ही हैं जो (विप्रासः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले, अपनी न्यूनताओं को दूर करनेवाले होते हुए, (नृचक्षसम्) = सब मनुष्यों का ध्यान करनेवाले (सुक्रतुम्) = उत्तम कर्मों व प्रज्ञानोंवाले आपको अपने हृदयों में धारण करते हैं। आपका ध्यान करते हुए ये स्वयं भी 'नृचक्षा व सुक्रतु' बनने का ध्यान करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का हृदय में धारण करनेवाला ही उत्तम ध्याता है। यह 'नृचक्षा व सुक्रतु' बनता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, self-refulgent lord of life, vibrant presence of the universe, surely they are the wise and holy men and they are the blessed men of noble thought and study worthy of reverence who hold on to the light of your presence in the heart and meditate on the presence as the lord observant of humanity and as the high priest of the cosmic yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराला हृदयप्रदेशात स्थापित करावे, अग्निहोत्र इत्यादी शुभ कर्म सदैव करावे, इत्यादी वाक्यांचा आशय हाच आहे की, त्याच्या आज्ञेचे सदैव पालन करावे. कधी लुब्ध व वशीभूत होऊनही त्याचा निरादर करू नये. त्याची उपासना तेव्हाच समजली जाऊ शकते जेव्हा उपासकही तसाच असेल. शुद्धता, पवित्रता व उदारत्व इत्यादी ईश्वरीय गुण आपल्यात धारण करून प्रत्येक दिवशी वाढीस लागावे. ॥१७॥

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