ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 22
ति॒ग्मज॑म्भाय॒ तरु॑णाय॒ राज॑ते॒ प्रयो॑ गायस्य॒ग्नये॑ । यः पिं॒शते॑ सू॒नृता॑भिः सु॒वीर्य॑म॒ग्निर्घृ॒तेभि॒राहु॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठति॒ग्मऽज॑म्भाय । तरु॑णाय । राज॑ते । प्रयः॑ । गा॒य॒सि॒ । अ॒ग्नये॑ । यः । पिं॒शते॑ । सू॒नृता॑भिः । सु॒ऽवीर्य॑म् । अ॒ग्निः । घृ॒तेभिः॑ । आऽहु॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिग्मजम्भाय तरुणाय राजते प्रयो गायस्यग्नये । यः पिंशते सूनृताभिः सुवीर्यमग्निर्घृतेभिराहुतः ॥
स्वर रहित पद पाठतिग्मऽजम्भाय । तरुणाय । राजते । प्रयः । गायसि । अग्नये । यः । पिंशते । सूनृताभिः । सुऽवीर्यम् । अग्निः । घृतेभिः । आऽहुतः ॥ ८.१९.२२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 22
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
हे होतः ! (तिग्मजम्भाय) तीक्ष्णमुखाय (तरुणाय) नित्याय (राजते) दीप्यमानाय (अग्नये) परमात्मने (प्रयः) हविः (गायसि) स्तुत्वा वह्नौ निःक्षिप (यः, अग्निः) यः परमात्मा (सूनृताभिः) सत्यप्रियाभिर्वाग्भिः (घृतेभिः) घृतैश्च (आहुतः) तर्पितः सन् (सुवीर्यम्, पिंशते) सुष्ठुवीर्यं विभजते उपासकाय ॥२२॥
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे उपासक ! यत्त्वम् । तिग्मजम्भाय=तीव्रार्चिषे । तरुणाय=यूने । राजते=शोभमानाय । अग्नये । प्रयोऽन्नं गायसि= अग्निहोत्रादिकर्मसम्पादनाय अन्नं वर्धयसि । तत्साधीयः खलु । यतः योऽग्निः । सूनृताभिः=प्रियाभिः । सत्याभिश्च वाग्भिः स्तुतः । घृतेभिर्घृतैश्चाहुतः सन् । सुवीर्य्यं पिंशते=संयोजयति । पिश अवयवे ॥२२ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
हे होता ! (तिग्मजम्भाय) तीक्ष्णमुखवाले (तरुणाय) नित्यनूतन (राजते) दीप्यमान (अग्नये) परमात्मा को उद्देश्य करके (प्रयः) हवि को (गायसि) स्तुतिसहित वह्नि में निःक्षिप्त करो (यः, अग्निः) जो परमात्मा (सूनृताभिः) सत्य तथा प्रिय वाणियों द्वारा तृप्त किया गया (घृतेभिः) घृताहुति द्वारा (आहुतः) सेवित (सुवीर्यम्) उपासक को सुन्दर वीर्य (पिंशते) विभक्त करता=देता है ॥२२॥
भावार्थ
जिस परमात्मा के करालकालरूप मुख में अनेक बलिष्ठ से बलिष्ठ प्राणी लय को प्राप्त हो जाते हैं, जो यज्ञ द्वारा सेवित और जो अपने उपासक को यथेष्ट बल प्रदान करता है, वही सबका सेव्य है। यहाँ “अग्नि” शब्द का भौतिकाग्नि अर्थ करना ठीक नहीं, क्योंकि सुवीर्यदानादिगुण भौतिकाग्नि में संभव नहीं हो सकते, इसलिये परमात्मा का ही ग्रहण करना चाहिये ॥२२॥
विषय
पुनः उसी विषय को कहते हैं ।
पदार्थ
हे उपासक ! आप जो (तिग्मजम्भाय) जिसकी ज्वाला बहुत तीक्ष्ण है (तरुणाय) जो नित्य नूतन है और (राजते) जो शोभायमान हो रहा है, ऐसे (अग्नये) अग्नि के लिये अर्थात् अग्निहोत्रादि कर्म के लिये (प्रयः) विविध प्रकार के अन्नों को (गायसि) बढ़ाते हैं, यह अच्छा है, क्योंकि (यः+अग्निः) जो अग्नि (सूनृताभिः) प्रिय और सत्य वचनों से प्रसादित और (घृतेभिः) घृतादि द्रव्यों से (आहुतः) आहुत होने पर (सुवीर्य्यम्) शोभनबल को (पिंशते) देता है ॥२२ ॥
भावार्थ
हम मनुष्य जो अन्न पशु हिरण्य और भूमि आदि बढ़ाकर धन एकत्रित करें, वह केवल परोपकार के और यज्ञादि शुभकर्म के लिये ही करें । धन की क्या अवश्यकता है, इसको अच्छे प्रकार विचार सन्मार्ग में इसका व्यय करें ॥२२ ॥
विषय
आहुत अग्निवत् विद्वान् का रूप।
भावार्थ
जिस प्रकार ( घृतेभि: आहुतः अग्निः ) घी की धाराओं से आहुति पाकर अभि ( सूनृताभिः ) उत्तम सत्य वाणियों सहित ( सुवीर्यं पिंशते ) उत्तम वीर्य युक्त रूप प्रकट करता है और जिस प्रकार ( घृतेभिः आहुतः ) जलों द्वारा प्राप्त ( अग्निः ) विद्युत् ( सूनृताभिः ) उत्तम विज्ञान युक्त क्रियाओं द्वारा वा मेघस्थ विद्युत् उत्तम बल अन्नादि युक्त धाराओं से ( सुवीर्यं ) उत्तम बलयुक्त रूप प्रकट करता है, उसी प्रकार ( घृतेभिः आहुतः ) दीप्ति, तेज वा स्नेहों से आदृत होकर ( अग्निः ) तेजस्वी ज्ञानी पुरुष वा प्रभु ( सूनृताभिः ) उत्तम ज्ञानमय वाणियों से (सुवीर्यम्) उत्तम रीति से विशेष रूप से, उपदेश करने योग्य ज्ञान को ( पिंशते ) प्रकट करता है, उस ( तिग्म-जम्भाय ) तीक्ष्णमुख, दुष्टों के हनन करने के लिये तीक्ष्ण हिंसा साधनों से युक्त (तरुणाय) सदा युवा, बलवान्, संकटों से तारने वाले, ( राजते ) राजा के समान आचरण करने वाले, ( अग्नये ) अग्रणी, ज्ञानी पुरुष के लिये ( प्रयः ) उत्तम प्रीतिकारक वचन वा स्तुति का ( गायसि ) गान कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञों से सुवीर्य-प्राप्ति
पदार्थ
[१] (तिग्मजम्भाय) = तीक्ष्ण दंष्ट्राओंवाले, (तरुणाय) = सब रोगों से तरानेवाले, (राजते) = चमकते हुए (अग्नये) = अग्नि के लिये (प्रयः) = हविर्लक्षण अन्न को (गायसि) = तू प्राप्त कराता है। प्रभु जीव को अग्निहोत्र की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि यह अग्नि रोगकृमियों के लिये बड़ा तीक्ष्ण दंष्ट्र है, तुम्हें रोगों से तरानेवाला है। इसके लिये हविर्द्रव्यों को प्राप्त करा के तुम स्वस्थ व राजमान [चमकते हुए] बनोगे। [२] (यः अग्निः) = जो अग्नि है, वह (सूनृताभिः) = प्रिय सत्य मन्त्रात्मक वाणियों से तथा (घृतेभिः) = घृतों से (आहुतः) = आहुत हुआ हुआ (सुवीर्यं पिंशते) = स्तोता के साथ उत्तम शक्ति को आशु षित करता है। इन यज्ञों में प्रवृत्त होने से मन्त्रात्मक वाणियों का उच्चारण व त्याग की वृत्ति का उदय होता रहता है। परिणामतः वासनामय जीवन नहीं बनता । सोमरक्षण होकर जीवन सुन्दरतम बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम अग्निहोत्र आदि यज्ञों में प्रवृत्त हों। ये यज्ञ जहाँ हमें नीरोग बनायेंगे, वहाँ हमारे साथ उत्तम शक्ति का सम्पर्क करेंगे।
इंग्लिश (1)
Meaning
O yajaka, you sing and celebrate Agni and offer libations of holy food to the flaming, ever youthful and brilliant fire of yajna which, when fed on ghrta and sung in sacred song, gives you strength and vigour in return for the homage.
मराठी (1)
भावार्थ
आम्ही माणसे जे अन्न, पशू, हिरण्य व भूमी इत्यादी वाढवून धन एकत्रित करतो ते केवळ परोपकारासाठी व यज्ञ इत्यादी शुभ कर्मासाठीच प्राप्त करावे. धनाची आवश्यकता काय आहे हे जाणून सन्मार्गात त्याचा व्यय करावा. ॥२२॥
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