ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 37
ऋषिः - सोभरिः काण्वः
देवता - त्रसदस्योर्दानस्तुतिः
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
उ॒त मे॑ प्र॒यियो॑र्व॒यियो॑: सु॒वास्त्वा॒ अधि॒ तुग्व॑नि । ति॒सॄ॒णां स॑प्तती॒नां श्या॒वः प्र॑णे॒ता भु॑व॒द्वसु॒र्दिया॑नां॒ पति॑: ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । मे॒ । प्र॒यियोः॑ । व॒यियोः॑ । सु॒ऽवास्त्वाः॑ । अधि॑ । तुग्व॑नि । ति॒सॄ॒णाम् । स॒प्त॒ती॒नाम् । श्या॒वः । प्र॒ऽने॒ता । भु॒व॒त् । वसुः॑ । दिया॑नाम् । पतिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत मे प्रयियोर्वयियो: सुवास्त्वा अधि तुग्वनि । तिसॄणां सप्ततीनां श्यावः प्रणेता भुवद्वसुर्दियानां पति: ॥
स्वर रहित पद पाठउत । मे । प्रयियोः । वयियोः । सुऽवास्त्वाः । अधि । तुग्वनि । तिसॄणाम् । सप्ततीनाम् । श्यावः । प्रऽनेता । भुवत् । वसुः । दियानाम् । पतिः ॥ ८.१९.३७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 37
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 35; मन्त्र » 7
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 35; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(उत) अथ (मे) मह्यम् (प्रयियोः) प्रयाणशीलस्य (वयियोः) वानक्रियानिष्पन्नस्य (सुवास्त्वाः) सुष्ठु गृहस्येव शरीरस्य (अधितुग्वनि) तीर्थ इव मध्ये (श्यावः) प्रकृत्याश्रितो भूत्वा (तिसॄणाम्) त्रिंसख्याकानाम् (सप्ततीनाम्) सप्ततिसंख्याकानाम् दशोत्तरद्विशत्यानाडीनां (प्रणेता) निर्माता (दियानाम्) नश्वरपदार्थानाम् (पतिः) पालकः (वसुः) अन्तःकरणवासी (भुवत्) भूयात् ॥३७॥ इति एकोनविंशतितमं सूक्तं पञ्चत्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
विषयः
पुनस्तदेव दर्शयति ।
पदार्थः
सप्ततीनाम्=सर्पणशीलानां सदागतीनाम् । तिसॄणाम्=तिसॄणां जगतीनाम् । पतिः=पालकः । पुनः । दियानाम्=दातॄणाञ्च पालकः । श्यावः=सर्वगतः परमात्मा । उत=अपि च । प्रयियोः=प्रयातुः । वयियोः=सदाकर्मासक्तस्य । मे=मम । सुवास्त्वाः=सुक्रियायाः । तुग्वनि+अधि=समाप्तौ । प्रणेता=प्रेरकः । वसुः=वासकश्च । भुवत्=भवतु ॥३७ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(उत) और (मे) जो मेरे लिये (प्रयियोः) प्रयाणशील अथवा चेष्टाश्रय (वयियोः) वानक्रियासिद्ध (सुवास्त्वाः) सुन्दर वास्तु=गृहतुल्य शरीर के (अधितुग्वनि) तीर्थरूप मध्य में “तुग्व तीर्थं भवति तूर्णमेतदायन्ति निरु० ४।१५।२०। द्विषष्टिपदेषु” (श्यावः) प्रकृत्याश्रित होकर (तिसॄणाम्) तीन (सप्ततीनाम्) सत्तर=दो सौ दस मुख्य नाड़ियों का (प्रणेता) निर्माता है (दियानाम्) वह नश्वर पदार्थों का “दीङ् क्षये अस्मात् छान्दसः कः” (पतिः) पालक परमात्मा (वसुः) अन्तःकरणवासी (भुवत्) हो ॥३७॥
भावार्थ
इस मन्त्र का भाव यह है कि जो परमात्मा सहस्रों नस नाड़ीरूप तन्तुओं से शरीररूप पटमण्डप को विनकर इसको क्रियावान् बनाता और उसके मध्य में जीवात्मा की चेतनशक्ति को प्रविष्ट कर स्वयं भी अन्तःकरणरूप तीर्थ में निवास करता है, जो सकल कार्य्यरूप ब्रह्माण्ड को स्वाधीन रखनेवाला और सब जीवों को कर्मानुसार न्यायपूर्वक फल देनेवाला है, उसको अपने अन्तःकरण में खोजना चाहिये ॥३७॥ यह उन्नीसवाँ सूक्त और पैंतीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
फिर उसी विषय को दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(सप्ततीनाम्) अतिगमनशील सदा चलनेवाले (तिसॄणाम्) तीनों भुवनों का और (दियानाम्) दाताओं का (पतिः) अधिपति पालक (श्यावः) सर्वव्यापी सर्वगत परमात्मा (उत+मे) मेरी (सुवास्त्वाः) निखिल शुभकर्म्मों की (अधि+तुग्वनि) समाप्ति-२ पर (प्रणेता) प्रेरक और (वसुः) वासदाता (भुवत्) होवे । जो मैं (प्रयियोः) उसी की ओर जा रहा हूँ और (वयियोः) सदा शुभकर्मों में आसक्त हूँ ॥३७ ॥
भावार्थ
जो समस्त भुवनों का तथा सकल दाताओं का रक्षक परमात्मा है, वही भक्तों के शुभकर्मों की समाप्ति में सहायक होता है । अतः सर्वत्र वही उपास्यदेव है ॥३७ ॥
टिप्पणी
यह अष्टम मण्डल का उन्नीसवाँ सूक्त और ३५ पैंतीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
पुरुकुत्स सेनापति । उसका वर्णन । अध्यात्म रहस्य ।
भावार्थ
( सुवास्तवाः ) उत्तम भवनों वाली नगरी के ( तुग्वनि अधि ) शत्रुहिंसक और प्रजापालक बल या सैन्य के ऊपर ( उत ) और ( प्रयियोः ) प्रयाण करने वाले सैन्य और ( वयियो: ) तन्तु-सन्तान विस्तार करने वाले, बसे ( मे ) मुझ प्रजाजन के ( तुग्वनि ) पालनकारी पद पर विराजमान ( श्यावः ) ज्ञानी और वीर पुरुष ( तिसणां सप्ततीनां ) तीन ७० । ७० की पंक्तियों का ( प्रणेता ) मुख्य नायक होकर ( दियानां ) करप्रद प्रजाओं का पालक, स्वामी और ( वसुः भुवत् ) 'वसु' होजाता है। अध्यात्म में—सुवास्तु, यह देह है उसमें प्रयाण करने और प्रज्ञा सन्तति का इच्छुक आत्मा है उसके पालक इस देहाधिष्ठाता प्राण पर भी भीतरी 'श्याव' अश्व मन ३ ᳵ ७० = २१० नाड़ियों को सञ्चालित करता है, वही ( दियानां पतिः ) ज्ञानप्रद इन्द्रियों का पालक अधिष्ठाता और (प्रणेता) मुख्य नायक भी होता है। उसीका नाम 'वसु' है । इति पञ्चत्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'प्रयियु, वयियु, सुवास्तु'
पदार्थ
[१] (उत) = और (मे) = मेरे लिये वे प्रभु (प्रयियोः) = जीवनयात्रा के लिये आवश्यक धन के [प्रयायते अनेन] प्रणेता प्राप्त करानेवाले हैं। (वयियोः) = [ऊयते येन] जिससे कर्म तन्तु का विस्तार किया जाता है उस ज्ञानरूप वस्त्र के (प्रणेता) = देनेवाले हैं। तथा (सुवास्त्वाः) = उत्तम शरीर गृह के देनेवाले हैं। वे (तिसृणाम्) = तीनों (सप्ततीनाम्) = सर्पणशील जीवन में निरन्तर बढ़नेवाले काम, क्रोध व लोभ के (अधि तुग्वनि) = आधिक्येन हिंसन के निमित्त प्रभु ही 'वयियु, सुवास्तु व प्रयियु' के देनेवाले हैं। वे कर्मतन्तु के विस्तारक ज्ञान को देकर प्रभु मुझे 'काम' से ऊपर उठाते हैं। उत्तम निवास के हेतुभूत इस शरीर गृह को देकर 'क्रोध' से दूर करते हैं तथा 'प्रयियु'- आवश्यक धन को देकर 'लोभ' से परे करते हैं। [२] वे प्रभु ही (श्यावः) = [ श्यैङ् गतौ] सब कार्यों के संचालक हैं। (भुवद्वसुः) = सब वसुओं के भावयिता [उत्पादक] हैं तथा (दियानां पतिः) = दानशील पुरुषों के रक्षक हैं। प्रभु का इस प्रकार स्मरण करते हुए हम इन तीनों सप्ततियों का तीनों सर्पणशील 'काम-क्रोध- लोभ' का शमन कर सकें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही धन-कर्मतन्तु विस्तारक ज्ञान तथा उत्तम शरीर गृह को देकर हमें काम- क्रोध-लोभ से दूर करते हैं। हम प्रभु का इस रूप में स्मरण करें, कि प्रभु ही सब कार्यों के सञ्चालक, धनों के उत्पादक व दानों के स्वामी हैं। अगले सूक्त ' में 'सोभरि' मरुतों का स्तवन करते हैं। मरुत् ' अध्यात्म' में प्राण हैं, 'अधिदैवत' रूप में ये वायु हैं, 'आधिभौतिक' क्षेत्र में ये सैनिक हैं-
इंग्लिश (1)
Meaning
May the lord omnipresent, master ruler of all moving things and the three worlds, supporter of all liberal people, be my ultimate guide, inspiration, and abode at the end of my life of karma, moving as I am towards him with concentration on good things in thought and action.
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमेश्वर संपूर्ण भुवनांचा व संपूर्ण दान देणाऱ्यांचा रक्षक आहे. तोच भक्तांच्या शुभ कर्माच्या समाधीमध्ये साह्यकर्ता असतो. त्यासाठी सर्वत्र तोच उपास्यदेव आहे. ॥३७॥
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