ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 14
स॒मिधा॒ यो निशि॑ती॒ दाश॒ददि॑तिं॒ धाम॑भिरस्य॒ मर्त्य॑: । विश्वेत्स धी॒भिः सु॒भगो॒ जनाँ॒ अति॑ द्यु॒म्नैरु॒द्न इ॑व तारिषत् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽइधा॑ । यः । निऽशि॑ती । दाश॑त् । अदि॑तिम् । धाम॑ऽभिः । अ॒स्य॒ । मर्त्यः॑ । विश्वा॑ । इत् । सः । धी॒भिः । सु॒ऽभगः॑ । जना॑न् । अति॑ । द्यु॒म्नैः । उ॒द्गःऽइ॑व । ता॒रि॒ष॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
समिधा यो निशिती दाशददितिं धामभिरस्य मर्त्य: । विश्वेत्स धीभिः सुभगो जनाँ अति द्युम्नैरुद्न इव तारिषत् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइधा । यः । निऽशिती । दाशत् । अदितिम् । धामऽभिः । अस्य । मर्त्यः । विश्वा । इत् । सः । धीभिः । सुऽभगः । जनान् । अति । द्युम्नैः । उद्गःऽइव । तारिषत् ॥ ८.१९.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ संसारसागरस्य पारप्राप्तये उपायः कथ्यते।
पदार्थः
(यः) यश्च (निशिती, समिधा) भौतिकाग्निप्रज्वालकेन काष्ठेन यागं संसाध्य (अदितिम्) दैन्यरहितं परमात्मानं (दाशत्) परिचरेत् (मर्त्यः) स जनः (अस्य, धामभिः) अस्य महिमभिः (सुभगः) स्वैश्वर्यः सन् (धीभिः) स्वकर्मभिः (विश्वा, इत्, जनान्) सर्वानेव जनान् (उद्गः, इव) उदकानीव (द्युम्नैः) यशोभिः सह (अतितारिषत्) अतितरेत् ॥१४॥
विषयः
उपासनाफलं दर्शयति ।
पदार्थः
यो मर्त्यः=मनुष्यः । निशिती=निशित्या=नितरां तीव्रया । समिधा=समिद्धया संदीप्तया भक्त्या । पुनः । अस्य=अस्यैव प्रदत्तैः । धामभिः । धारकैः । सप्राणैः=सर्वेन्द्रियैः । अदितिमखण्डमविनश्वरं देवम् । दाशत्=परिचरति=सेवते । स धीभिर्बुद्धिभिः । सुभगः=सुन्दरः सर्वप्रियो भवति । तथा । द्युम्नैः=द्योतमानैर्यशोभिः । विश्वा+इत्=विश्वान् सर्वानेव । जनान् । उद्न इव=उदकानीव । अतितारिषत्=अतितरति अतिक्रामति ॥१४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब मनुष्य को इस भवसागररूप संसार से पार होने का उपाय कथन करते हैं।
पदार्थ
(यः) जो मनुष्य (निशिती, समिधा) गार्हपत्यादि भौतिकाग्नि को तीक्ष्ण करनेवाली समिधाओं से योगसाधन द्वारा (अदितिम्) दैन्यरहित परमात्मा का (दाशत्) परिचरण करता है, वह (मर्त्यः) मनुष्य (अस्य, धामभिः) इस परमात्मा की महिमा से (सुभगः) सौभाग्यवान् होकर (धीभिः) स्वकर्मों द्वारा (विश्वा, इत्, जनान्) सभी प्रतिपक्षी मनुष्यों को (उद्गः, इव) नौका द्वारा गम्भीर जलों के समान (द्युम्नैः) दिव्ययशों के सहित (अतितारिषत्) अवतीर्ण हो जाता है ॥१४॥
भावार्थ
जिस प्रकार मनुष्य नौका द्वारा गम्भीर से गम्भीर नदी नदों को, जल अथवा जलजन्तुजनित क्लेश न सहता हुआ पार करता है, इसी प्रकार संसाररूपी महासागर को परमात्मरूपनौकाश्रित होकर सुखेन पार कर सकता है। जिस प्रकार काष्ठादिनिर्मित नौका काष्ठादिनिर्मित क्षेपणी=चलाने के दण्डों से चलाई जाती है, उसी प्रकार परमात्मरूप नौका के चलाने के लिये ज्ञानयज्ञमय तथा कार्ययज्ञमय दो क्षेपणी हैं, जिनका अनुष्ठान करता हुआ पुरुष सुखपूर्वक इस संसाररूप भवसागर से पार होकर अमृतपद को प्राप्त होता है ॥१४॥
विषय
उपासना का फल दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(यः+मर्त्यः) जो मनुष्य (निशिती) अत्यन्त तीव्र और (समिधा) प्रदीप्त भक्ति से और (अस्य) उसी के दिए हुए (धामभिः) धारण-पोषण करनेवाले प्राणसहित सर्वेन्द्रियों से (अदितिम्) अखण्ड अविनश्वर परमात्मा की (दाशत्) सेवा करता है, (सः) वह (धीभिः) बुद्धियों से भूषित होकर (सुभगः) देखने में सुन्दर और सर्वप्रिय होता है और उन ही बुद्धियों के द्वारा और (द्युम्नैः) द्योतमान यशों से (विश्वा+इत्) सब ही (जनान्) मनुष्यों को (अतितारिषत्) अतिशय पार कर जाता है अर्थात् सब जनों से अतिशय बढ़ जाता है । यहाँ दृष्टान्त देते हैं−(उद्नः+इव) जैसे नौका की सहायता से मनुष्य नदियों के पार उतरता है ॥१४ ॥
भावार्थ
प्रात्यहिक शुभकर्मों और ईश्वर की आज्ञापालन से मनुष्य की परमोन्नति होती है ॥१४ ॥
विषय
नेता के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( समिधा अग्निम् ) काष्ट की समिधा से अग्नि की जिस प्रकार परिचर्या करता है उसी प्रकार ( य: ) जो पुरुष ( निशिती ) अति तीक्ष्ण बुद्धि से ( अदितिं ) अखण्ड, अदीन सूर्यवत् सर्वोपरि प्रभु की ( दाशत् ) सेवा करता, उसके प्रति अपने को सौंपता है ( सः ) वह ( मर्त्यः ) मनुष्य ( अस्य धामभिः ) उसके ही नाना तेजों वा धारण सामर्थ्यो से ( धीभिः ) कर्मों के अनुसार ( द्युम्नैः ) ऐश्वर्यों से ( विश्वा इत् जनान् ) समस्त जनों को ( उद् नः इव अति तारिषत् ) जलों के समान पार कर जाता है और ( सु-भगः ) वह उत्तम ऐन्नर्यवान् भी हो जाता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
द्युम्नैः [बुद्धि-विद्या]
पदार्थ
[१] (यः मर्त्यः) = जो मनुष्य (अस्य) = इस अग्रेणी प्रभु के (धामभिः) = तेजों की प्राप्ति के हेतु से (निशिती) = प्रज्वलन हेतुभूत (समिधा) = ज्ञानदीप्ति के द्वारा (अदितिं दाशत्) = अदीना देवमाता के प्रति अपना अर्पण करता है। अर्थात् जब मनुष्य अपने अन्दर उस ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करता है जो वासनाओं को दग्ध करती है और प्रभु के तेजों को प्राप्त कराती है, तो वह अपने जीवन को दिव्यगुणों के उत्पादन के योग्य बना पाता है। [२] (सः) = वह पुरुष (धीभिः) = उत्तम कर्मों के द्वारा व बुद्धियों के द्वारा (सुभगः) = उत्तम ऐश्वर्यवाला होता हुआ (द्युम्नैः) = ज्ञान- ज्योतियों से (विश्वा इत्) = सब ही (जनान्) = लोगों को (अतितारिषत्) = अतिक्रमण कर जाता है, (इव) = जैसे कोई व्यक्ति (उद्न:) = जल से पार हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने अन्दर ज्ञानाग्नि को प्रज्वलित करें। यही हमें प्रभु के तेजों को प्राप्त करायेगी, दिव्यगुणों का हमारे अन्दर वर्धन करेगी। बुद्धि व विद्या का सम्पादन करते हुए सब से आगे बढ़ जायेंगे [अति समं क्राम]।
इंग्लिश (1)
Meaning
The mortal who serves Aditi, immortal fire of mother Infinity, with blazing fuel within the radiance of its own laws is blest with the wealth and splendour of all orders of intelligence, honour and fame and surpasses all people of the other order like a captain on the helm crossing the stormy seas.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रत्येक दिनी शुभ कर्म केल्यास व ईश्वराच्या आज्ञा पालन केल्यास माणसाची परमोन्नती होते. ॥१४॥
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