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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 15
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    तद॑ग्ने द्यु॒म्नमा भ॑र॒ यत्सा॒सह॒त्सद॑ने॒ कं चि॑द॒त्रिण॑म् । म॒न्युं जन॑स्य दू॒ढ्य॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । अ॒ग्ने॒ । द्यु॒म्नम् । आ । भ॒र॒ । यत् । स॒सह॑त् । सद॑ने । कम् । चि॒त् । अ॒त्रिण॑म् । म॒न्युम् । जन॑स्य । दुः॒ऽध्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदग्ने द्युम्नमा भर यत्सासहत्सदने कं चिदत्रिणम् । मन्युं जनस्य दूढ्य: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । अग्ने । द्युम्नम् । आ । भर । यत् । ससहत् । सदने । कम् । चित् । अत्रिणम् । मन्युम् । जनस्य । दुःऽध्यः ॥ ८.१९.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ अक्रोधिनः फलं वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (अग्ने) हे परमात्मन् ! (तद्, द्युम्नम्) तादृशं पराक्रमम् (आभर) आहर (यत्, सदने) यद्गृहे वर्तमानम् (कंचित्, अत्रिणम्) कंचिददनशीलं राक्षसादिकम् (सासहत्) साहयेत (दूढ्यः, जनस्य) दुर्धियो जनस्य (मन्युम्) क्रोधम् सासहत् ॥१५॥

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    विषयः

    अग्निवाच्येश्वरस्य स्तुतिं दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे अग्ने ! व्यापिन् देव ! तद् द्युम्नम्=द्योतमानं ज्ञानम् । आभर=आहर=अस्माकं हृदि आनय । यज्ज्ञानम् । सदने=हृदयगृहे तिष्ठन्तम् । कं चिदत्रिणं ज्ञानभक्षकं शरीरशोषकं अविवेकम् । सासहत्=सासहेत=अभिभवेत् । पुनः । यद् द्युम्नम् । दूढ्यः=दुर्धियो जनस्य । मन्युम्=क्रोधमपि विनाशयेत् ॥१५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब क्रोध न करनेवाले को फल कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे परमात्मन् ! (तद्, द्युम्नम्) आप उस पराक्रम को (आभर) मुझे आहरण करें (यत्) जो (सदने) गृह में वर्तमान (कंचित्, अत्रिणम्) किसी भी सतानेवाले राक्षस को और (दूढ्यः, जनस्य) मूर्ख मनुष्य के (मन्युम्) अनुचित क्रोध को (सासहत्) अभिभूत कर सके ॥१५॥

    भावार्थ

    प्रत्येक उपासक को चाहिये कि वह परमात्मोपासना द्वारा स्वशक्ति बढ़ाकर अनुचित व्यापार से स्वकार्यबाधित करनेवालों को ही बाधित करें, अपराधरहित प्राणी को कदापि नहीं, क्योंकि निरपराध प्राणी को बाधित करना असुरभाव कहलाता है, अतएव पुरुष असुरभाव का कदापि अवलम्बन न करे और किसी प्राणी पर कदापि अनुचित क्रोध न करे, ऐसा पुरुष सदैव विपत्तिग्रस्त रहता और अक्रोधी पुरुष सबका मित्र होता और उसका जीवन संसार में सुखमय होता है ॥१५॥

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    विषय

    अग्निवाच्य ईश्वर की स्तुति दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वगत ईश्वर ! (तद्+द्युम्नम्) उस प्रकाशमान ज्ञान को (आभर) हमारे हृदय में लाइये (यत्) जो ज्ञान (सदने) हृदयरूप भवन में (कञ्चित्+अत्रिणम्) स्थित और सन्तापप्रद निखिल अविवेक को (सासहत्) सहन करे अर्थात् विनष्ट करे और जो (दूढ्यः) दुर्मति (जनस्य) मनुष्य के (मन्युम्) क्रोध को भी दूर करे ॥१५ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर की प्रार्थना और विद्या द्वारा वैसे विवेक का उपार्जन करे, जिससे महान् रिपु हृदयस्थ अविवेक विनष्ट हो और गृहसम्बन्धी निखिल कलह दूर हों ॥१५ ॥

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    विषय

    नेता के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्निवत् तेजस्विन् ! प्रभो ! नायकवर ! तू ( तत् द्युम्नं ) वह उज्ज्वल ज्ञानप्रकाश और तेज ( आ भर ) धारण कर और हमें प्रदान कर ( यत् ) जो ( सदने ) घर में, देह में ( कं चित् अत्रिणं ) किसी भी खाजाने वाले, राक्षसवत् दुखदायी लोभ को ( सासहत् ) पराजित कर सके और जो ( दूढयः जनस्य ) दुष्ट बुद्धि वाले मनुष्य के ( मन्युं सासहत् ) कोध पर विजय पा सके।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    शत्रु- पराभावक 'द्युम्न'

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (तद्) = उस (द्युम्नम्) = ज्ञानज्योति को (आभर) = हमारे में भरिये (यत्) = जो (सदने) = इस शरीर गृह में आ जानेवाले (कञ्चिद्) = किसी भी (अत्रिणम्) = हमें खा जानेवाले राक्षसी भाव को (सासहत्) = पराभूत कर दे, कुचल दे। [२] और उस ज्ञान ज्योति को दीजिये जो (दूढ्यः) = दुर्बुद्धि (जनस्य) = मनुष्य के (मन्युम्) = क्रोध को परभूत कर दे, अर्थात् दुर्बुद्धि मनुष्य की इस ज्ञानी के ज्ञान से प्रभावित होकर क्रोध को न करनेवाला हो जाये।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञान - ज्योति के द्वारा वासनाओं को पराभूत करनेवाले बनें। दुर्बुद्धि जनों के क्रोध का भी विलापन करनेवाले हों।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of light and life, give us that splendour of spirit and intelligence which may challenge and overcome any voracious friend at the door, in the heart and home, and counter the wealth of any evil minded person anywhere in life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराची प्रार्थना व विद्या याद्वारे विवेकाची प्राप्ती करावी, ज्यामुळे महान असा शत्रू जो हृदयातील अविवेक आहे तो नष्ट व्हावा व घरातील संपूर्ण कलह दूर व्हावा. ॥१५॥

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