Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 27
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - आर्च्युष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    पि॒तुर्न पु॒त्रः सुभृ॑तो दुरो॒ण आ दे॒वाँ ए॑तु॒ प्र णो॑ ह॒विः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पि॒तुः । न । पु॒त्रः । सुऽभृ॑तः । दु॒रो॒णे । आ । दे॒वान् । ए॒तु॒ । प्र । नः॒ । ह॒विः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पितुर्न पुत्रः सुभृतो दुरोण आ देवाँ एतु प्र णो हविः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पितुः । न । पुत्रः । सुऽभृतः । दुरोणे । आ । देवान् । एतु । प्र । नः । हविः ॥ ८.१९.२७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 27
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (दुरोणे) यज्ञगृहे (पितुः, पुत्रः, न) पित्रा पुत्र इव (भृतः) सेवितः परमात्मा (नः) अस्माकम् (देवान्) दिव्यगुणवतो जनान् प्रति (हविः) अन्नादिकम् (प्रैतु) प्रगमयतु। पुत्रकर्तृकं पितृसेवनं व्यभिचारि इति पितृकर्तृकपुत्रसेवनेनोपमिते मन्त्रे ॥२७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    पुनस्तदनुवर्त्तते ।

    पदार्थः

    वृद्धावस्थायाम् । न=यथा । पुत्रः पितुः सुभृतः=शोभनभरणकर्त्ता भवति । तथैव परमात्मा । दुरोणे=अस्माकं गृहे । सुभृतः=सुभर्त्ता भूत्वा । नोऽस्माकम् । देवान्=क्रीडाशीलान् पुत्रादीन् । आ=अभिलक्ष्य । हविर्हविष्यान्नम् । प्रेतु=प्रापयतु=वर्धयतु ॥२७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (दुरोणे) यागगृह में (पितुः, पुत्रः, न) पिता से पुत्र की नाईं (भृतः) सेवित परमात्मा (नः) हमारे (देवान्) दिव्यगुणसम्पन्न विद्वानों के प्रति (हविः) अन्नादिक भोग्य पदार्थ (प्रैतु) प्राप्त कराये ॥२७॥

    भावार्थ

    पुत्रकर्तृक पिता का सेवन व्यभिचारी होता है, इसलिये इस मन्त्र में पितृकर्तृक पुत्र के सेवन से उपमा दी गई है, जिसका तात्पर्य्य यह है कि यद्यपि परमात्मा सब प्राणियों का परम पिता है, पुत्र नहीं, तो भी मन्त्र में “पुत्र की नाईं सेवन किया गया” यह विशेषण उपमार्थ इसलिये दिया है कि पिता पुत्र को प्राण से भी प्रिय मानकर सेवन करता है और पुत्र का सेवन पिता में व्यभिचरित देखा जाता है अर्थात् प्राणों से प्रिय परमात्मा, जो हमारा प्रेमपात्र तथा सेवनीय इष्टदेव है, वह हमको योग्य पदार्थ प्राप्त कराये, जिससे हम पुष्ट होकर सदैव प्रजाहितकारक कार्य्यों में प्रवृत्त रहें ॥२७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    (न) जैसे वृद्धावस्था में (पुत्रः) सुयोग्य पुत्र (पितुः) पिता का (सुभृतः) अच्छे प्रकार भरण-पोषण करता है, तद्वत् वह परमात्मा (दुरोणे) हम लोगों के गृह में भरण-पोषण कर्त्ता बनकर (नः) हमारे (देवान्) क्रीडाशील पुत्रादिकों के (आ) लिये (हविः) हविष्यान्न की (प्र+एतु) वृद्धि करें ॥२७ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! प्रथम तुम अपने अन्तःकरण को शुद्ध करो और जगत् में हिंसा परद्रोहादि दुष्टकर्मों से सर्वथा निवृत्त हो जाओ । तब वह परमदेव तुम्हारे हृदय और गृह में वासकर शुभ मार्ग की ओर ले जावेगा ॥२७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पितावत् प्रभु ।

    भावार्थ

    ( सु-भृतः) उत्तम रीति से भरण पोषण प्राप्त, सुपुष्ट (पुत्रः) पुत्र जिस प्रकार ( दुरोणे ) गृह में ( पितुः ) पिता का भी पालक होता है, उसी प्रकार ( अग्निः ) अग्निवत् तेजस्वी परमेश्वर एवं राजा गृहपति भी ( पितुः न ) अन्न के समान ( पुत्रः ) बहुतों के रक्षा करने में समर्थ, (सु-भृतः) उत्तम रीति से प्रजा का भरण पोषण करने वाला होकर (दुरोणे) अन्यों से कठिनता से प्राप्त करने योग्य राष्ट्रपति वा मोक्ष पद पर है। वह ( देवान् आ एतु ) समस्त मनुष्यों, विद्वानों और दिव्य पदार्थों को प्राप्त हो, और वह ( नः हविः प्र एतु ) हमारे स्तुतिवचन वा कर आदि देने योग्य अंश को भी प्राप्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यज्ञाग्नि का सुभरण

    पदार्थ

    [१] (पितुः पुत्रः न) = पिता से जिस प्रकार पुत्र का सुभरण किया जाता है, इसी प्रकार यह यज्ञिय अग्नि (दुरोणे) = घर में (सुभृतः) = हमारे से सम्यक् धारण की जाये। [२] (नः) = हमारी (हविः) = अग्नि में डाली गयी आहुति (देवान्) = वायु आदि देवों को (आ एतु) = समन्तात् प्राप्त हो । अग्नि इन हविर्द्रव्यों को सूक्ष्म कणों में विभक्त करके सारे वायुमण्डल में फैलानेवाला हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम घरों में यज्ञाग्नि का इस प्रकार भरण करें जैसे पिता पुत्र का भरण करता है। इसे हम अपना मुख्य कर्त्तव्य समझें। यह यज्ञ ही सब वायुमण्डल को पवित्र करता है व हमारे लिये नीरोग बनाता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Just as the son is cherished in the father’s home and then the son looks after the parents, similarly Agni is cherished in the house of yajna and may Agni carry our oblations to the divinities.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! प्रथम तुम्ही आपले अन्त:करण शुद्ध करा व जगात हिंसा, परद्रोह इत्यादी दुष्ट कर्मापासून संपूर्णपणे निवृत्त व्हा. तेव्हा तो परमेश्वर तुमच्या हृदयात व घरात वास करून शुभ मार्गाकडे नेईल. ॥२७॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top