ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 28
तवा॒हम॑ग्न ऊ॒तिभि॒र्नेदि॑ष्ठाभिः सचेय॒ जोष॒मा व॑सो । सदा॑ दे॒वस्य॒ मर्त्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । अ॒हम् । अ॒ग्ने॒ । ऊ॒तिऽभिः । नेदि॑ष्ठाभिः । स॒चे॒य॒ । जोष॑म् । आ । व॒सो॒ इति॑ । सदा॑ । दे॒वस्य॑ । मर्त्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तवाहमग्न ऊतिभिर्नेदिष्ठाभिः सचेय जोषमा वसो । सदा देवस्य मर्त्य: ॥
स्वर रहित पद पाठतव । अहम् । अग्ने । ऊतिऽभिः । नेदिष्ठाभिः । सचेय । जोषम् । आ । वसो इति । सदा । देवस्य । मर्त्यः ॥ ८.१९.२८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 28
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(वसो, अग्ने) हे व्यापक परमात्मन् ! (मर्त्यः, अहम्) मरणशीलोऽहम् (देवस्य, तव) द्योतमानस्य तव (नेदिष्ठाभिः, ऊतिभिः) अन्तिकतमाभी रक्षाभिः (सदा) शश्वत् (आसचेय) आसेवेथ (जोषम्) तव प्रीतिम् ॥२८॥
विषयः
पुनस्तदनुवर्त्तते ।
पदार्थः
हे अग्ने=सर्वगत ! हे वसो=धनस्वरूप परमोदार ईश ! अहं मर्त्यः=मनुष्य उपासकः । देवस्य=सर्वपूज्यस्य । तव । नेदिष्ठाभिः=अन्तिकतमाभिः=समीपवर्त्तिनीभिः । ऊतिभिः=रक्षाभिः । सदा जोषम्=प्रीतिम् । आसचेय=अभिसेवेय ॥२८ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अग्ने, वसो) हे व्यापक परमात्मन् ! (मर्त्यः, अहम्) जन्म-मरणशील हम (देवस्य, तव) प्रकाशमय आपकी (नेदिष्ठाभिः, ऊतिभिः) अत्यन्त समीप में होनेवाली रक्षाओं सहित (सदा) सदैव (जोषम्) आपकी प्रीति का (आसचेय) आसेवन करते रहें ॥२८॥
भावार्थ
उपासकों को परमात्मा से यह प्रार्थना करनी चाहिये कि हे परमात्मन् ! हमारे रक्षायोग्य जो अन्नादि पदार्थ हैं, उनको आप अपनी व्यापक शक्ति से समीप ही में उत्पन्न करते रहें, जिससे सुखपूर्वक आपका सेवन कर सकें, या यों कहो कि वह दिव्यगुणसम्पन्न परमात्मा हमारे कल्याणकारक भोग्यपदार्थ तथा हमको आरोग्यता प्रदान करे, जिससे हम चिन्तारहित होकर औपकारिक कार्य्य करते हुए आपकी उपासना में निरन्तर रत रहें ॥२८॥
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
हे सर्वगत (वसो) हे धनस्वरूप हे परमोदार ईश ! (मर्त्यः) मरणधर्मा (अहम्) मैं उपासक (देवस्य+तव) सर्वपूज्य आपकी (नेदिष्ठाभिः) समीपवर्ती (ऊतिभिः) रक्षाओं से (जोषम्) प्रीति को (आ+सचेय) पाऊँ, ऐसी कृपा कर ॥२८ ॥
भावार्थ
हे भगवन् ! मुझको निखिल दुर्व्यसन और दुष्टता से दूर करो जिससे मैं सबका प्रीतिपात्र बनूँ । अज्ञान से दुर्व्यसन में और स्वार्थ से परद्रोह में लोग फँसते हैं, अतः सत्सङ्ग और विद्याभ्यास और ईश्वरीय गुणों का अपने हृदय में आधान करें ॥२८ ॥
विषय
भगवान् की भक्ति।
भावार्थ
हे ( वसो ) सब प्राणियों और लोकों को बसाने और उन सब में बसने हारे ! हे (अग्ने ) तेजस्विन् ! हे अंग २ में व्यापक ! (सदा) सर्वदा, सब कालों में ( मर्त्यः ) मैं मरणधर्मा जीव ( देवस्य तत्र ) सर्व सुखदाता, सर्वप्रकाशक तेरी (नेदिष्ठाभिः मतिभिः) अति समीपतम रक्षाओं से सुरक्षित होकर ( तत्र जोषम् आ सचेय ) तेरे प्रेम और सेवा का सब प्रकार से लाभ करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु के बनें, प्रकृति में न फँसें
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! (अहम्) = मैं (तव) = आपकी (नेदिष्ठाभिः) = अन्तिकतम (ऊतिभिः) = रक्षणों से (जोषम्) प्रीतिपूर्वक कर्त्तव्य कर्मों के सेवन को (आसचेय) = अपने साथ जोड़नेवाला बनूँ। आपसे रक्षित हुआ हुआ प्रीतिपूर्वक कर्त्तव्य कर्मों में लगा रहूँ। [२] हे (वसो) वसानेवाले प्रभो ! मैं (सदा) = सदा (देवस्य) = दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रकाशमय आपका ही (मर्त्यः) = मनुष्य बना रहूँ। इसी प्रकार मैं उत्तम निवासवाला बन पाऊँगा ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु से रक्षित होकर हम कर्त्तव्य कर्मों में तत्पर रहें। सदा उस देव के बनें, प्रकृति में फँस न जायें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, light of life all pervasive, shelter home of humanity, mortal as I am, I pray, may I, by the closest protections of the power divine always enjoy the love and favour of the lord.
मराठी (1)
भावार्थ
हे भगवान! मला संपूर्ण दुर्व्यसन व दुष्टतेपासून दूर कर. ज्यामुळे मी सर्वांचे प्रीतिपात्र बनू. अज्ञानाने दुर्व्यसनात व स्वार्थाने परद्रोहात लोक फसतात. त्यासाठी सत्संग व विद्याभ्यास तसेच ईश्वरीच गुणांचे आपल्या हृदयात आधान करावे. ॥२८॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal