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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 6
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    तस्येदर्व॑न्तो रंहयन्त आ॒शव॒स्तस्य॑ द्यु॒म्नित॑मं॒ यश॑: । न तमंहो॑ दे॒वकृ॑तं॒ कुत॑श्च॒न न मर्त्य॑कृतं नशत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । इत् । अर्व॑न्तः । रं॒ह॒य॒न्ते॒ । आ॒शवः॑ । तस्य॑ । द्यु॒म्निऽत॑मम् । यशः॑ । न । तम् । अंहः॑ । दे॒वऽकृ॑तम् । कुतः॑ । च॒न । न । मर्त्य॑ऽकृतम् । न॒श॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्येदर्वन्तो रंहयन्त आशवस्तस्य द्युम्नितमं यश: । न तमंहो देवकृतं कुतश्चन न मर्त्यकृतं नशत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । इत् । अर्वन्तः । रंहयन्ते । आशवः । तस्य । द्युम्निऽतमम् । यशः । न । तम् । अंहः । देवऽकृतम् । कुतः । चन । न । मर्त्यऽकृतम् । नशत् ॥ ८.१९.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथोक्तं यज्ञकर्तुर्फलमुच्यते।

    पदार्थः

    (तस्य, इत्) तस्यैव (आशवः, अर्वन्तः) आशुगामिनोऽश्वाः (रंहयन्ते) धावन्ति (तस्य, द्युम्नितमम्, यशः) तस्य दिव्यतमं यशो भवति (तम्) तं जनम् (कुतश्चन) कुतोऽपि (देवकृतम्, अंहः, न) देवैः कृतं पापं न (नशत्) व्याप्नोति (न, मर्त्यकृतम्) न मनुष्यकृतम् व्याप्नोति ॥६॥

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    विषयः

    अग्निहोत्रादिकर्मफलमाह ।

    पदार्थः

    तस्येत्=पूर्वोक्तस्य अग्निहोत्रादिकर्मकर्तुः पुरुषस्यैव । इद् एवार्थः । आशवः=शीघ्रगामिनः । अर्वन्तः=अश्वाः । संग्रामे रंहयन्ते=वेगं कुर्वन्ति । पुनः । तस्यैव । द्युम्नितमम्=प्रकाशवत्तमम् । यशः=कीर्त्तिर्भवति । तथा । तं पुरुषम् । कुतश्चन=कस्मादपि कारणात् । देवकृतम्=देवैः प्रेरितम् । अंहः=पापम् । न+नशत्=न प्राप्नोति=न व्याप्नोति । नश व्याप्तौ । अपि च । मर्त्यकृतं पापं न नशत् ॥६ ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    अब उक्त यज्ञों के कर्त्ता को फल कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (तस्य, इत्) उसी के (आशवः, अर्वन्तः) शीघ्रगामी अश्व (रंहयन्ते) वेग से दौड़ते हैं (तस्य, द्युम्नितमम्, यशः) उसी को दिव्यमय यश प्राप्त होता है (तम्) उसको (कुतश्चन) कहीं भी (देवकृतम्, अंहः, न) देवों से किया हुआ पाप (नशत्) व्याप्त नहीं होता (न, मर्त्यकृतम्) न मनुष्यकृत ही व्याप्त होता है ॥६॥

    भावार्थ

    जो पूर्वोक्त यज्ञकर्ता है, उसको यश के सहित अन्नादि पदार्थ प्राप्त होते हैं और देवकृत=नेता लोगों के प्रमाद से किया गया अथवा मर्त्यकृत=साधारण मनुष्यद्वारा आया हुआ पाप उसको बाधित नहीं करता अर्थात् जो पुरुष नियमपूर्वक उक्त तीनों यज्ञों का अनुष्ठान करता है, उसको यश प्राप्त होता और गौ, अश्व तथा नाना प्रकार के धनों से सुभूषित होता है और देवकृत तथा मनुष्यकृत पापरूप मल पङ्क से निपायमान नहीं होता, अतएव ऐश्वर्य की कामनावाले सब मनुष्यों को उक्त यज्ञों का अनुष्ठान सदैव करना चाहिये ॥६॥

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    विषय

    इस ऋचा से अग्निहोत्रादि कर्मों का फल कहते हैं ।

    पदार्थ

    (तस्य) उस अग्निहोत्रादि कर्मकर्त्ता पुरुष के (आशवः) शीघ्रगामी (अर्वन्तः) घोड़े (रंहयन्ते) संग्राम में वेग करते हैं और (यस्य) उसी की (द्युम्नितमम्) अतिशय प्रकाशवान् (यशः) कीर्ति होती है । (तम्) उसको (कुतश्चन) किसी भी कारण से (देवकृतम्) देवों से प्रेरित=इन्द्रियकृत (अंहः) पाप (न+नशत्) नहीं प्राप्त होता है और (न+मर्त्यकृतम्) मनुष्यकृत पाप भी उसको प्राप्त नहीं होता ॥६ ॥

    भावार्थ

    जो शुभकर्म में सदा आसक्त हैं, वे कदापि अशुभ कर्म में प्रवृत्त नहीं होते, अतः वे न इन्द्रियविवश होते और न ये दुर्जनों के जाल में ही फँसते हैं ॥६ ॥

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    विषय

    यज्ञ के लाभ

    शब्दार्थ

    (स्वध्वर:) उत्तम रीति से यज्ञ करनेवाला (य: मर्त:) जो मनुष्य (समिधा) समिधा से (य आहुतीः) जो आहुति से (य: वेदेन) जो वेद से (य: नमसा) जो श्रद्धा से (अग्नये ददाश) प्रकाशस्वरूप परमात्मा के लिए समर्पण कर देता है (तस्य इत्) उसके ही (आशवः अर्वन्त: रंहयन्त) तीव्रगामी घोड़े दौड़ते हैं (तस्य यश: द्युम्नितमम्) उसका यश महान् होता है (तं) उसे (कुतश्चन) कहीं से भी (देवकृतम्) देवों का किया और (मर्त्यकृतम्) मनुष्यों का किया (अंहः) पाप, अनिष्ट (न नशत्) नहीं प्राप्त होता ।

    भावार्थ

    इन मन्त्रों में अग्निहोत्र के लाभों का वर्णन है । जो व्यक्ति प्रतिदिन यज्ञ करता है उसके घर में तीव्रगामी अश्व होते हैं, उसका यश दूर-दूर तक फैल जाता है। देव-अग्नि, वायु, जल, शुद्ध हो जाने के कारण उसका कुछ अनिष्ट नहीं कर सकते । मनुष्य भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते । पाठक कहेंगे, यज्ञ तो हम भी करते हैं । हमें तो यज्ञ से कोई लाभ होता दिखाई नहीं देता ? इसका कारण है । हम यज्ञ करते हैं परन्तु विधिहीन । यज्ञ करने से सब कुछ मिलता है। परन्तु कब ? जब उत्तमरीति से यज्ञ किया जाए। ठीक प्रकार से यज्ञ करना क्या है ? यज्ञ की भावना को समझो । जिस प्रकार समिधा और सामग्री अग्नि में आहुति होती हैं उसी प्रकार हम भी आत्माग्नि की आहुति दे दें । अपने जीवन को प्रभु के लिए श्रद्धापूर्वक समर्पित कर दें तो हमें संसार में किसी वस्तु का अभाव नहीं रहेगा ।

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    विषय

    उपासक यज्ञकर्त्ता को सत्फल की प्राप्ति।

    भावार्थ

    ( तस्य इत् ) उसके ही ( आशवः अर्वन्तः ) वेग से जाने वाले अश्व ( रंहयन्ते ) वेग से गमन करते हैं ( तस्य ) उसका ही ( यशः धुम्नितमम् ) यश अति उज्वल होता है, ( तम् ) उस तक ( देवकृतं ) विद्वानों और ( मर्त्यकृतं ) मनुष्यों का किया ( अंहः ) पाप या अपराध कर्म ( कुतः चन न नशत् ) किसी भी प्रकार से नहीं प्राप्त हो । अर्थात् यज्ञशील उपासक को किसी प्रकार का पाप स्पर्श नहीं करता ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    आधिदैविक व आधिभौतिक कष्टों से दूर

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार जो प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता है, (तस्य इत्) = उसके ही (आशवः) = शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाले (अर्वन्तः) = इन्द्रियाश्व (रंहयन्ते) = कर्त्तव्य कर्मों में तीव्र गतिवाले होते हैं। (तस्य) = उसी का (यशः) = यश (द्युम्नितमम्) = अधिक से अधिक दीप्तिवाला होता है। इसका जीवन यशस्वी व ज्ञान की दीप्तिवाला होता है। [२] (तम्) = इस प्रभु के उपासक को (कुतश्चन) = कहीं से भी (देवकृतम्) = सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, विद्युत् आदि देवों से उत्पन्न हुआ हुआ (अंहः) = कष्ट (नशत्) = नहीं प्राप्त होता और (न) = न ही (मर्त्यकृतम्) = मनुष्यों से उत्पन्न हुआ-हुआ कष्ट प्राप्त होता है। अर्थात् यह उपासक प्राकृतिक जगत् व जैविक जगत् की अनुकूलता को प्राप्त करता है और शान्त सुखी जीवनवाला होता है। ऐसी स्थिति में सब इन्द्रियाँ व बुद्धि अपना-अपना कार्य ठीक से करती हैं। सो इस उपासक को अध्यात्म कष्टों से भी पीड़ा नहीं प्राप्त होती । त्रिविध कष्टों से ऊपर उठकर यह प्रभु के अधिकाधिक समीप होता जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के प्रति अपना अर्पण करनेवाले को न आधिदैविक कष्ट प्राप्त होते हैं, न आधिभौतिक। यह उत्तम इन्द्रियों व बुद्धिवाला बनकर अध्यात्म कष्टों से भी ऊपर उठ जाता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    His horses speed on at the fastest and hasten him to victory. His honour and fame shine the brightest. Whatever he does in honour of the divinities or in service to mortal humanity, sin and pride never touch him nor does it pollute his action.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे शुभकर्मात सदैव आसक्त आहेत ते कधीही अशुभ कर्मात प्रवृत्त होत नाहीत. त्यामुळे ते इन्द्रियाधीन होत नाहीत व दुर्जनाच्या जाळ्यात अडकत नाहीत. ॥६॥

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