Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 12
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    विप्र॑स्य वा स्तुव॒तः स॑हसो यहो म॒क्षूत॑मस्य रा॒तिषु॑ । अ॒वोदे॑वमु॒परि॑मर्त्यं कृधि॒ वसो॑ विवि॒दुषो॒ वच॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विप्र॑स्य । वा॒ । स्तु॒व॒तः । स॒ह॒सः॒ । य॒हो॒ इति॑ । म॒क्षुऽत॑मस्य । रा॒तिषु॑ । अ॒वःऽदे॑वम् । उ॒परि॑ऽमर्त्यम् । कृ॒धि॒ । वसो॒ इति॑ । वि॒वि॒दुषः॑ । वचः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विप्रस्य वा स्तुवतः सहसो यहो मक्षूतमस्य रातिषु । अवोदेवमुपरिमर्त्यं कृधि वसो विविदुषो वच: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विप्रस्य । वा । स्तुवतः । सहसः । यहो इति । मक्षुऽतमस्य । रातिषु । अवःऽदेवम् । उपरिऽमर्त्यम् । कृधि । वसो इति । विविदुषः । वचः ॥ ८.१९.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (सहसः, यहो) हे महाबलेन साक्षात्कार्यत्वात्तस्य पुत्र इव परमात्मन् ! (वसो) सर्वं जगदाच्छाद्य वर्तमान (स्तुवतः, विप्रस्य, वा) स्तुतिं कुर्वतो मेधाविनः अथवा (मक्षूतमस्य, रातिषु) दानयज्ञेषु शीघ्रकारिणः (अवोदेवम्) दिव्यपदार्थानामवस्तात् (उपरिमर्त्यम्) भूलोकादुपरि (विविदुषः) विदुषः (वचः, कृधि) ज्ञापकवचनं कुरु ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    प्रार्थनामनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    वा=अपि च । सहसः=जगतः । यहो=उत्पादक । हे वसो=वासप्रद परमदेव ! विप्रस्य=विशेषेण ज्ञानविज्ञानप्रपूरकस्य । पुनः । स्तुवतः=तव गुणगानं कुर्वतः । पुनः । रातिषु=विद्यादिदानेषु । मक्षूतमस्य=शीघ्रतमस्य । ईदृशस्य । त्रिविदुषः=विशेषज्ञस्य पण्डितस्य । वचः=स्तुतिरूपं वचनम् । अवोदेवम्=देवानां परमविदुषामव=अधस्तात् । उपरिमर्त्यम्=मर्त्यानामुपरि । कृधि=कुरु ॥१२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (सहसः, यहो) अतिबल से साक्षात्कार होने के कारण बल के पुत्रसमान परमात्मन् (वसो) सम्पूर्ण जगत् को आच्छादन करके वर्तमान आप (स्तुवतः, विप्रस्य, वा) स्तुतिकर्ता विद्वान् के लिये अथवा (मक्षूतमस्य, रातिषु) दानयज्ञों में शीघ्रता करनेवाले यजमान के लिये (अवोदेवम्) दिव्य सूर्यादि पदार्थों के नीचे और (उपरिमर्त्यम्) भूलोक के ऊपर के विषय को (विविदुषः) जाननेवाले विद्वान् के लिये (वचः, कृधि) ज्ञानजनक वचनों का निर्माण करें ॥१२॥

    भावार्थ

    परमात्मध्यानपरायण मनुष्य अपने चित्त को शुद्ध=प्रतिष्ठित बनाकर पृथिवी से अन्तरिक्षपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान में अथवा सदैव समृद्धि को प्राप्त करके विद्वानों के कर्म की सहायता में समर्थ होता है अर्थात् परमात्मदेव अपने उपासक तथा यज्ञों में दानदाता यजमान के लिये भूलोक तथा अन्तरिक्षलोक की विद्याओं का ज्ञाता बनाकर ऐश्वर्य्यसम्पन्न करता है ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    इससे प्रार्थना दिखाते हैं ।

    पदार्थ

    (वा) और (सहसः+यहो) हे जगत् के उत्पादक ! हे (वसो) वासप्रद ईश (विप्रस्य) ज्ञानविज्ञानों से संसार को भरनेवाले (स्तुवतः) आपके गुणों का मान करनेवाले (रातिषु) और दान देने में (मक्षूतमस्य) अतिशीघ्रगामी ऐसे (विविदुषः) विशेषज्ञ पुरुष के (वचः) स्तोत्ररूप वचन को (अवोदेवम्) देवों के नीचे और (उपरिमर्त्यम्) मनुष्यों के ऊपर (कृधि) कीजिये ॥१२ ॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् संसार के उपकार में सदा लगे रहते हैं, उनकी वाणी को परमात्मा सबके ऊपर स्थापित करता है । अतः हे मनुष्यों ! स्वार्थ को त्याग परमार्थ में लगो ॥१२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विद्वान् का वर्णन उस के संस्कार का विधान ।

    भावार्थ

    हे ( वसो ) राष्ट्र में बसने वाले ! हे गुरु के अधीन बसने वाले विद्वन् ! हे ( सहसः यहो ) बलवान् पिता के पुत्र ! शिष्य ! तू ( स्तुवतः ) उपदेष्टा ( विप्रस्य ) बुद्धिमान् और ( विविदुषः ) विशेष विद्यावान्, ज्ञानी पुरुष के ( वचः ) वचन को ( अवो:-देवम् ) परमेश्वर से नीचे और ( उपरि मर्त्यं ) साधारण मनुष्यों से ऊपर ( कृधि ) कर। और ( यक्षतमस्य ) अति शीघ्रकारी, अति कुशल वा पुरुष के ( रातिषु ) दानों में से ( वचः ) वचन, उपदेश को भी तू ईश्वर से न्यून और सामान्य मानवों से अधिक श्रद्धायोग्य जान।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्तोता-यष्टा तत्त्ववेत्ता

    पदार्थ

    [१] हे (सहसो यहो) = बल के पुत्र, बल के पुञ्ज [सर्वशक्तिमन्] (वसो) = सब को निवास देनेवाले प्रभो ! इस (स्तुवतः) = स्तुति करते हुए (विप्रस्य) = ज्ञानी पुरुष के (वा) = तथा (रातिषु) = दान के कार्यों में (मक्षूतमस्य) = शीघ्रतम पुरुष के (विविदुषः) = इस तत्त्वज्ञानी के (वचः) = वचनों को (अवः देवम्) = द्युलोक नीचे तथा (उपरिमर्त्यम्) = मर्त्यलोक के ऊपर, अर्थात् सर्वत्र व्याप्त (कृधि) = करिये । [२] इस तत्त्वज्ञानी के वचनों को सब कोई सुने। और उसकी तरह ही प्रभु-स्तवन को करनेवाला, यज्ञशील व ज्ञानी बनने का प्रयत्न करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्तोता-यज्ञशील ज्ञानियों के ज्ञानोपदेश सर्वत्र पहुँचें। उनसे प्रेरणा को प्राप्त करके लोग भी वैसा बनने के लिये यत्नशील हों।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And O child of strength born of yajnic endeavour and sustainer of vitality in human affairs, O Vasu, all pervasive divine fire, living shelter of all, convert the song of the vibrant scholar celebrant to super mortal prayer and raise it to reach the heights of divinity.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे विद्वान जगाच्या उपकारात सदैव रमलेले असतात, त्यांना परमात्मा सर्वात वर ठेवतो. त्यासाठी हे माणसांनो! स्वार्थाचा त्याग करून परमार्थाकडे वळा. ॥१२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top