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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 18
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त इद्वेदिं॑ सुभग॒ त आहु॑तिं॒ ते सोतुं॑ चक्रिरे दि॒वि । त इद्वाजे॑भिर्जिग्युर्म॒हद्धनं॒ ये त्वे कामं॑ न्येरि॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । इत् । वेदि॑म् । सु॒ऽभ॒ग॒ । ते । आऽहु॑तिम् । ते । सोतु॑म् । च॒क्रि॒रे॒ । दि॒वि । त् ए । इत् । वाजे॑भिः । जि॒ग्युः॒ । म॒हत् । धन॑म् । ये । त्वे इति॑ । काम॑म् । नि॒ऽ ए॒रि॒रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त इद्वेदिं सुभग त आहुतिं ते सोतुं चक्रिरे दिवि । त इद्वाजेभिर्जिग्युर्महद्धनं ये त्वे कामं न्येरिरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते । इत् । वेदिम् । सुऽभग । ते । आऽहुतिम् । ते । सोतुम् । चक्रिरे । दिवि । त् ए । इत् । वाजेभिः । जिग्युः । महत् । धनम् । ये । त्वे इति । कामम् । निऽ एरिरे ॥ ८.१९.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 18
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (सुभग) हे स्वैश्वर्य ! (ते, इत्, वेदिम्) त एव यज्ञवेदिम् (ते, आहुतिम्) त एवाहुतिम् (ते, दिवि, सोतुम्, चक्रिरे) त एव दिव्ये यज्ञे सोमरसादि सोतुं प्रक्रमन्ते (ते, इत्) त एव (वाजेभिः) बलैः सह (महत्, धनम्) अतिशयितं धनम् (जिग्युः) लभन्ते जित्वा (ये) ये जनाः (कामम्) स्वाभिलाषम् (त्वे, न्येरिरे) त्वयि निदधति ॥१८॥

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    विषयः

    पुनस्तदनुवर्त्तते ।

    पदार्थः

    हे सुभग=परमसुन्दर देव ! त इत्=त एव मनुष्याः । वेदिम्=पूजास्थानम् । चक्रिरे=कुर्वन्ति । त एव । आहुतिम् । चक्रिरे=कुर्वन्ति । त एव । दिवि=दिने दिने । सोतुम्=यज्ञं कर्तुं उद्यता भवन्ति । त इद्=त एव । वाजेभिर्वाजैर्ज्ञानैः सह । महद्धनम् । जिग्युः=जयन्ति । ये उपासकाः । त्वे=त्वयि एव । कामम्=वाञ्छाम् । न्येरिरे=नितरां स्थापयन्ति । त्वय्येव सर्वं समर्पयन्ति ॥१८ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (सुभग) हे सुन्दरऐश्वर्यवाले परमात्मन् ! (ते, इत्, वेदिम्) वे ही मनुष्य यज्ञभूमि को (ते, आहुतिम्) वे ही आहुति को (ते, दिवि, सोतुम्, चक्रिरे) वे ही दिव्ययज्ञ में अभिषव प्रारम्भ करते हैं (ते, इत्) वे ही (वाजेभिः) बलों सहित (महत्, धनम्) महान् धन को (जिग्युः) जीतकर लब्ध करते हैं, (ये) जो (कामम्) अपने अभिलाष को (त्वे, न्येरिरे) आप में रखते हैं ॥१८॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमात्माधीन होकर अपने पुरुषार्थ को यज्ञ, परोपकार, बलोपार्जन, धनोपार्जन अथवा संग्राम में लगाते हैं, उन्हीं को यथेष्ट फलसिद्धि होती है अर्थात् परमात्मा के उपासक तथा आज्ञापालक पुरुष ही अपनी कामनाओं को पूर्ण कर सकते हैं, अन्य नहीं ॥१८॥

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    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    हे (सुभग) परमसुन्दर देव ! (त इत्) वे ही उपासक (वेदिम्) पूजा के लिये वेदी (चक्रिरे) बनाते हैं, (त इत्) वे ही (आहुतिम्) उस वेदी में आहुति देते हैं, (ते) वे ही (दिवि) दिन-२ (सोतुम्) यज्ञ करने के लिये उद्यत रहते हैं, (त इत्) वे ही (वाजेभिः) ज्ञानों से (महद्+धनम्) बहुत बड़ा धन (जिग्युः) जीतते हैं । हे परमात्मन् ! (ये) जो सर्वभाव से (त्वे) आपमें ही (कामम्) सब कामनाओं को (न्येरिरे) समर्पित करते हैं ॥१८ ॥

    भावार्थ

    धन्य वे नर हैं, जो सदा ईश्वर की आज्ञा पर चलते हुए जगत् के कार्य्यों में लगे रहते हैं ॥१८ ॥

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    विषय

    यज्ञ आदि द्वारा उपासकों को उत्तम फल।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! ज्ञानवन् ! ( ये ) जो ( त्वे ) तुझ में ( कामम् ) अपने कामना वा इच्छा करने वाले आत्मा वा मन को ( त्वे नि-एरिरे ) तेरे अधीन, तेरे ही में प्रेरित करते हैं ( ते ) वे ( इत् ) ही हे ( सुभग ) उत्तमैश्वर्यवन् ! ( वेदिम् चक्रिरे ) वेदि बनाते, ( ते आहुतिं चक्रिरे ) वे आहुति करते और इस भूमि पर ( ते सोतुं चक्रिरे ) वे हवन यज्ञ करते हैं। इसी प्रकार वे ( वेदिं ) ज्ञान करते, ( आहुतिं ) दान आदान करते, ( सोतुं ) ऐश्वर्य उत्पन्न करते। ( ते इत् ) वे ही ( वाजेभिः ) ज्ञानों और सैन्यादि बल पराक्रमों से ( महद् धनं जिग्युः ) बड़े भारी धन का विजय करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    यज्ञ-सोम सम्पादन-ऐश्वर्य = का विजय

    पदार्थ

    [१] हे (सुभग) = उत्तम ऐश्वर्योंवाले प्रभो ! (ये) = जो लोग (त्वे) = आपके विषय में (कामम्) = इच्छा को (न्येरिरे) = प्रेरित करते हैं, अर्थात् आपको प्राप्त करने की कामनावाले होते हैं, (ते इत्) = वे ही (वेदिम्) = वेदि को, यज्ञभूमि को (चक्रिरे) = बनाते हैं । (ते) = वे ही (आहुतिम्) = [चक्रिरे] वहाँ यज्ञाग्नि में आहुतियों को करते हैं। (ते) = वे दिवि ज्ञान के प्रकाश के निमित्त (सोतुम्) = सोम के सम्पादन के लिये प्रवृत्त होते हैं। सोमरक्षण के द्वारा ही तो वे अपनी ज्ञानाग्नि को दीप्त कर पायेंगे। इस प्रकार प्रभु प्राप्ति की कामनावाले पुरुष यज्ञशील होते हैं और सोम का सम्पादन करते हैं। [२] (ते) = वे यज्ञशील व सोम का सम्पादन करनेवाले व्यक्ति (इत्) = ही (वाजेभिः) = शक्तियों के द्वारा व त्यागों के द्वारा [वाज = sacrifice] (महद्) = महान् (धनम्) = धन का (जिग्युः) = विजय करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु प्राप्ति की कामनावाले लोग यज्ञशील व सोम का सम्पादन करते हैं। ये ही त्याग व शक्ति के द्वारा महान् धन का विजय करते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Lord of glory and divine grace, Agni, they alone in reality organise the yajna vedi, they really offer the oblations into the sacred fire, they in truth endeavour to distil the soma of joy in the light of divinity, they in ultimate terms win the wealth of life by their struggle of life, who concentrate their hopes and ambitions in you and attribute and dedicate all their success, honour and fame to you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सदैव ईश्वराच्या आज्ञेत चालतात व जगाच्या कार्यात मग्न असतात ते नर धन्य होत. ॥१८॥

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