ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 13
यो अ॒ग्निं ह॒व्यदा॑तिभि॒र्नमो॑भिर्वा सु॒दक्ष॑मा॒विवा॑सति । गि॒रा वा॑जि॒रशो॑चिषम् ॥
स्वर सहित पद पाठयः । अ॒ग्निम् । ह॒व्यदा॑तिऽभिः । नमः॑ऽभिः । वा॒ । सु॒ऽदक्ष॑म् । आ॒ऽविवा॑सति । गि॒रा । वा॒ । अ॒जि॒रऽशो॑चिषम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अग्निं हव्यदातिभिर्नमोभिर्वा सुदक्षमाविवासति । गिरा वाजिरशोचिषम् ॥
स्वर रहित पद पाठयः । अग्निम् । हव्यदातिऽभिः । नमःऽभिः । वा । सुऽदक्षम् । आऽविवासति । गिरा । वा । अजिरऽशोचिषम् ॥ ८.१९.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 13
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(यः) यो मनुष्यः (सुदक्षम्) सुकुशलम् (अजिरशोचिषम्) अजीर्णबलम् (अग्निम्) परमात्मानम् (हव्यदातिभिः) हव्यदानैः (नमोभिः, वा) अथवा नमनैः (गिरा) वाचा (वा) अथवा (आविवासति) परिचरति ॥१३॥
विषयः
उपासककर्मं दर्शयति ।
पदार्थः
य उपासकः । सुदक्षम्=संसारविरचने परमनिपुणं बलवन्तं वा । पुनः । अजिरशोचिषम्=अजीर्णशोचिषम्=महातेजस्कम् । अग्निम्=परमात्मदेवमुद्दिश्य । हव्यदातिभिः=भोज्यान्नप्रदानैः । नमोभिः=नमस्कारैः सत्कारैर्वा । गिरा=वाण्या वा । आविवासति=संसारं तोषयति स सर्वं साधयतीति शेषः ॥१३ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यः) जो (सुदक्षम्) सुन्दर कर्मकुशल (अजिरशोचिषम्) जीर्ण न होनेवाले बलवान् (अग्निम्) परमात्मा का (हव्यदातिभिः) हव्यदान से (नमोभिः, वा) अथवा नमस्कार से (गिरा, वा) अथवा स्तुतिवाक् से (आविवासति) परिचरण करता है ॥१३॥ इसका आगे के मन्त्र से सम्बन्ध है।
भावार्थ
परमात्मा ही अनश्वर प्रतापवाला तथा ज्ञान का प्रकाशक है, ऐसा समझकर जो मनुष्य हव्यदान=कर्मों द्वारा नमस्कार तथा स्तुतियों द्वारा परमात्मा की उपासना करता है, वह अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त होता है ॥१३॥
विषय
उपासक का कर्म दिखाते हैं ।
पदार्थ
(यः) जो उपासक (सुदक्षम्) जगत् की रचना में परमनिपुण या परमबलवान् पुनः (अजिरशोचिषम्) महातेजस्वी (अग्निम्) परमात्मदेव के उद्देश्य से (हव्यदातिभिः) भोज्यान्न देने से (नमोभिः+वा) नमस्कारों या सत्कारों से और (गिरा) वाणी से (आविवासति) संसार की सेवा करता है, वह सब सिद्ध करता है ॥१३ ॥
भावार्थ
ईश्वर के उद्देश्य से ही सब शुभकर्म कर्त्तव्य हैं, लोग अभिमान से ईश्वर को और सदाचार को भूल जाते हैं, वे क्लेश में पड़ते हैं ॥१३ ॥
विषय
विद्वान् का वर्णन उस के संस्कार का विधान ।
भावार्थ
( यः ) जो ( हव्य-दातिभिः ) चरु आदि हव्य पदार्थों की आहुतियों से ( अग्निम् ) जिस प्रकार अग्नि को ( आ विवासति ) यजमान सेवन करता है उसी प्रकार ( यः ) जो पुरुष ( अग्निम् ) अग्निवत् तेजस्वी, ज्ञान प्रकाशक, ( सुदक्षम् ) उत्तम, कार्यकुशल पुरुष को ( हव्य-दातिभिः ) उत्तम ग्राह्य तथा भोज्य पदार्थों के दानों से और ( नमोभिः ) नमस्कार आदि सत्कारयुक्त वचनों से वा अन्नों से ( आ विवासति ) परिचर्या करता है, ( वा ) और जो ( अजिर-शोचिषम् ) न नाश होने वाली दीप्ति से युक्त अग्निवत् अविनाशी कान्ति वाले, प्रकाशस्वरूप आत्मा को ( गिरा ) वाणी द्वारा ( आविवासति ) साक्षात् करता है वही पुरुष वास्तविक अग्निहोत्र और वास्तविक स्वप्रकाश आत्मदर्शन वा उपासना करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
हव्यदातिभिः-नमोभिः-गिरा
पदार्थ
[१] (य:) = जो (सुदक्षम्) = शोभन बलवाले व उन्नति के कारणभूत (अग्निम्) = अग्नि को अग्रेणी प्रभु को (हव्यदातिभिः) = हव्यों के देने के द्वारा, अर्थात् यज्ञों के द्वारा (वा) = तथा (नमोभिः) = नमस्कारों के द्वारा (आविवासति) = पूजित करता है, वह भी अग्नि बनता है, आगे बढ़नेवाला होता है तथा सुदथ= = शोभन बलवाला बनता है। [२] (वा) = या जो (गिरा) = ज्ञानपूर्वक उच्चरित स्तुति वाणियों के द्वारा (अजिर शोचिषम्) = गति द्वारा सब बुराइयों को परे फेंकनेवाले तेज से युक्त प्रभु का उपासन करता है [अज गतिक्षेपणयोः] यह उपासक इस उपासना से तेजस्वी बनकर सब बुराइयों को परे फेंकनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का उपासन 'यज्ञों नमस्कारों व ज्ञान वाणियों' द्वारा होता है। उपासक 'आगे बढ़नेवाला, उत्तम बलवाला व गति के द्वारा बुराइयों को परे फेंकनेवाले तेजवाला' होता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
One who lights the versatile yajnic fire and thereby whole heartedly serves the fire divine of imperishable flames with oblations of sacred havis, reverence and holy words of prayer never falls, never fails in life.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराच्या उद्देशानेच सर्व शुभ कर्म कर्तव्ये असतात. जे लोक अभिमानी बनून ईश्वर व सदाचार विसरतात ते क्लेश भोगतात. ॥१३॥
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