ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 16
येन॒ चष्टे॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा येन॒ नास॑त्या॒ भग॑: । व॒यं तत्ते॒ शव॑सा गातु॒वित्त॑मा॒ इन्द्र॑त्वोता विधेमहि ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । चष्टे॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । येन॑ । नास॑त्या । भगः॑ । व॒यम् । तत् । ते॒ । शव॑सा । गा॒तु॒वित्ऽत॑माः । इन्द्र॑त्वाऽऊताः । वि॒धे॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
येन चष्टे वरुणो मित्रो अर्यमा येन नासत्या भग: । वयं तत्ते शवसा गातुवित्तमा इन्द्रत्वोता विधेमहि ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । चष्टे । वरुणः । मित्रः । अर्यमा । येन । नासत्या । भगः । वयम् । तत् । ते । शवसा । गातुवित्ऽतमाः । इन्द्रत्वाऽऊताः । विधेमहि ॥ ८.१९.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 16
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! (येन) येन तव तेजसा (वरुणः) विघ्नानां वारयिता भजनीयो वा नेता (मित्रः) सर्वेषां हितः (अर्यमा) परमात्मज्ञानवान् (चष्टे) प्रकाशते (येन) येन च (नासत्या) सत्यज्ञानः सत्यकर्मा च (भगः) भजनीयः सदाचरणशीलो विद्वान् प्रकाशते (शवसा) बलेन (गातुवित्तमाः) गातव्यस्य कीर्तियुक्तस्य लब्धृतमाः (इन्द्रत्वोताः) इन्द्रेण रक्षिताः सन्तः (वयम्) वयं सर्वे (तत्, ते) तत् तेजः (विधेमहि) सेवेमहि ॥१६॥
विषयः
पुनः प्रार्थनां विदधाति ।
पदार्थः
हे परमदेव ! वरुणः=राजप्रतिनिधिः । मित्रः=ब्राह्मणप्रतिनिधिः । अर्य्यमा=वैश्यप्रतिनिधिः । नासत्या=असत्यरहितौ वैद्यौ । भगः=भजनीयो जनः । येन=ज्ञानेन । चष्टे=सत्यासत्ये कर्त्तव्याकर्त्तव्ये पश्यति व्याचष्टे च । तत्ते=तव प्रदत्तं ज्ञानम् । वयमपि । विधेमहि=कार्य्येषु आनयेमहि । तादृशीं शक्तिं देहि । कीदृशा वयम् । शवसा=बलेन । गातुवित्तमा=गातोर्गातव्यस्य स्तोत्रस्य ज्ञातृतमाः । पुनः । इन्द्रत्वोताः=त्वया इन्द्रेण ऊताः=रक्षिताः ॥१६ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (येन) जिस आपके तेज से (वरुणः) विघ्नों का वारक अथवा भजनीय नेता (मित्रः) सबका हितकारक (अर्यमा) परमात्मज्ञानप्रकाशक विद्वान् (चष्टे) प्रकाश को पाता है (येन) जिससे (नासत्या) सत्यज्ञानवाला, सत्यकर्मवाला तथा (भगः) भजनीय सदाचारी विद्वान् प्रकाशित होता है (शवसा) बल से (गातुवित्तमाः) कीर्तनीय पदार्थ को अतिशय लाभ करनेवाले (इन्द्रत्वोताः) आपसे रक्षित होकर (वयम्) हम सब (तत्, ते) उस आपके तेज का (विधेमहि) सेवन करें ॥१६॥
भावार्थ
अनेक प्रकार के उच्चपदवाले नेतागणों के आचरण तथा यश को –देख-सुनकर उपासक वैसे ही आचरणों को करता हुआ पवित्र यश की प्रार्थना करे अर्थात् सत्यज्ञानवाला, सत्यकर्मवाला, सदाचारी तथा परमात्मा का उपासक विद्वान् जिन-२ कर्मों का अनुष्ठान करता है, उन्हीं कर्मों का आचरण करता हुआ यशस्वी, तेजस्वी, प्रतापी और दीर्घ जीवनवाला होता है ॥१६॥
विषय
पुनः प्रार्थना का विधान करते हैं ।
पदार्थ
हे परमदेव ! (वरुणः) राजप्रतिनिधि (मित्रः) ब्राह्मणप्रतिनिधि (अर्यमा) वैश्यप्रतिनिधि (नासत्या) असत्यरहित वैद्यप्रतिनिधि (भगः) और भजनीय सर्वप्रतिनिधि (येन) जिस ज्ञान से (चष्टे) सत्यासत्य और कर्त्तव्याकर्त्तव्य देखते और उनका व्याख्यान करते हैं, (तत्) उस (ते) तेरे दिये ज्ञान को (वयम्) हम भी (विधेमहि) कार्यों में लगा सकें, ऐसी शक्ति दे, जो हम लोग (शवसा) बलपूर्वक (गातुवित्तमाः) अच्छे प्रकार स्तोत्रों के जाननेवाले और (इन्द्रत्वोताः) तुझसे ही सुरक्षित हैं ॥१६ ॥
भावार्थ
ऐसी-२ ऋचा द्वारा एक यह विषय विस्पष्टता से दिखलाया जाता है कि प्रार्थयिता नर योग्य हैं या नहीं । अतः प्रथम स्वयं प्रार्थना के योग्य बनें, तब उसके निकट याचना करें, तब ही उसकी पूर्त्ति हो सकती है ॥१६ ॥
विषय
नेता के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्निवत् तेजस्विन् ! ( येन ) जिस ( शवसा ) बल और ज्ञान से ( वरुणः मित्रः अर्थमा ) श्रेष्ठ, स्नेही और दुष्ट पुरुषों का नियन्ता, न्यायकारी पुरुष ( चष्टे ) न्यायानुकूल प्रजाजन को देखता है, सत् असत् का निर्णय करता है, और ( येन शवसा ) जिस ज्ञान और बल से ( नासत्या ) कभी, असत्याचरण न करने वाले वा नासिकावत् प्रमुख पद पर स्थित स्त्री पुरुष और ( भगः ) ऐश्वर्यवान् स्वामी ( चष्टे ) अधीनस्थों को देखता और आज्ञा वचन कहता है हम ( इन्द्र-त्वोता: ) तुझ सूर्याग्निवत् तेजस्वी और प्रचण्ड विद्वान् और वीर पुरुष द्वारा सुरक्षित रहकर ( ते तत् शवसा ) उसी तेरे बल से ( गातुवित्-तमाः ) खूब भूमि और वाणी के धन को अच्छी प्रकार प्राप्त होकर ( ते ) तेरे ( तत् विधेमहि ) उसी बल और ज्ञान को सम्पादन करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
वह 'बल'
पदार्थ
[१] (येन शवसा) = जिस बल के द्वारा (वरुणः) = निर्देषता की देवता (चष्टे) = हमारे जीवन को प्रकाशित करती है, (मित्रः) = स्नेह की देवता तथा (अर्यमा) = [ अरीन् यच्छति] शत्रु नियमन की देवता हमारे जीवन को प्रकाशमय करती है। (येन) = जिस बल के द्वारा (नासत्या) = अश्विनी देव, अर्थात् प्राणापान तथा (भगः) = ऐश्वर्य की देवता हमारे जीवन को प्रकाशमय बनाती है । (वयम्) = हम ते आपके (तत्) = उस बल को (विधेमहि) = परिचरित करते हैं, पूजते हैं। हम इस बल का पूजन करते हैं, यह बल ही हमारे जीवन में 'वरुण' आदि देवों के निवास का कारण बनता है। [२] इसी बल से हम, हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (त्वोता:) = आप के द्वारा रक्षित होते हैं और (गातुवित्तमा:) = अधिक से अधिक मार्ग को प्राप्त करनेवाले होते हैं। यह बल ही हमें मार्गभ्रष्ट नहीं होने देता।
भावार्थ
भावार्थ- हम बल का सम्पादन करते हुए 'निर्देष, स्नेहवाले, शत्रु- नियन्ता, प्राणापान की शक्ति से सम्पन्न, ऐश्वर्यशाली व मार्ग पर चलनेवाले' बनें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of light and life, we worship, pray for and try to acquire that light of vision and discrimination of intelligence of yours by which Varuna, man of judgement and justice, Mitra, man of love and friendship, Aryaman, guide and pioneer of society, the Ashvins, complementary agents of development and progress, and Bhaga, man of power, fame and honour, envision things in unison, discriminate right from wrong, and declare for all to see and follow the right so that thereby, O Indra, ruling lord and power version of Agni, we all, most keen to know the paths of progress and follow them, may advance with the power of our will and knowledge under your guidance and protection.
मराठी (1)
भावार्थ
अशा ऋचांद्वारे एक विषय स्पष्टतेने दिसून येतो की, प्रार्थना करणारा माणूस योग्य आहे की नाही? त्यासाठी स्वत: प्रार्थनायोग्य बनावे. तेव्हाच त्याच्याजवळ याचना करावी. त्यामुळे त्याची पूर्ती होऊ शकते. ॥१६॥
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