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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    यजि॑ष्ठं त्वा ववृमहे दे॒वं दे॑व॒त्रा होता॑र॒मम॑र्त्यम् । अ॒स्य य॒ज्ञस्य॑ सु॒क्रतु॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यजि॑ष्ठम् । त्वा॒ । व॒वृ॒म॒हे॒ । दे॒वम् । दे॒व॒ऽत्रा । होता॑रम् । अम॑र्त्यम् । अ॒स्य । य॒ज्ञस्य॑ । सु॒ऽक्रतु॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यजिष्ठं त्वा ववृमहे देवं देवत्रा होतारममर्त्यम् । अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यजिष्ठम् । त्वा । ववृमहे । देवम् । देवऽत्रा । होतारम् । अमर्त्यम् । अस्य । यज्ञस्य । सुऽक्रतुम् ॥ ८.१९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! (यजिष्ठम्) इष्टतमम् (देवत्रा, देवम्) देवेषु देवम् (होतारम्) यज्ञकर्तारम् (अमर्त्यम्) अव्ययम् (अस्य, यज्ञस्य, क्रतुम्) अस्य ब्रह्माण्डयज्ञस्य कर्त्तारम् (त्वा) त्वाम् (ववृमहे) वृणुमः ॥३॥

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    विषयः

    ईशस्तुतिं दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे परमदेव ! वयं त्वा=त्वामेव । ववृमहे=वृणीमहे । पूज्यत्वेन त्वामेव स्वीकुर्मः । कीदृशम् । यजिष्ठम्=यतस्त्वमेव यजनीयतमोऽसि । देवम्=सर्वगुणसम्पन्नम् । पुनः । देवत्रा=सूर्य्याग्निवायुप्रभृतिषु । अमर्त्यम् । इमे सर्वे सूर्य्यादयो मनुष्या इव मरणधर्माणो विनश्वराः सन्ति । त्वमेक एवाविनश्वरः शाश्वतः पुराणोऽसि । पुनः । होतारम्=जीवनदातारम् । अस्य=संसारलक्षणस्य यज्ञस्य । सुक्रतुम्=शोभनकर्त्तारम् ॥३ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! (यजिष्ठम्) अत्यन्त पूजनीय (देवत्रा, देवम्) देवों में भी देव (होतारम्) यज्ञप्रेरक (अमर्त्यम्) मृत्युरहित, विकाररहित (अस्य, यज्ञस्य, क्रतुम्) इस ब्रह्माण्डरूप यज्ञ के करनेवाले (त्वा) आपको (ववृमहे) वरण करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    पूर्व मन्त्र में परमात्मा को स्तुति द्वारा वरण करना वर्णन किया है, अब इस मन्त्र में वरण का हेतु दिखलाया है कि जो परमात्मा सबसे बड़े इस ब्रह्माण्डरूप यज्ञ का प्रवर्तक तथा स्थितिकर्ता है और मृत्युरहित होने से सर्वदा सहायक है तथा सब देवों का भी देवता है, उसीका रक्षार्थ वरण करना उचित है, क्योंकि अन्य साधारणजन अधिक से अधिक एक जन्म का सहायक हो सकता है और वह अनेक जन्म-जन्मान्तरों का सहायक है, अतएव मनुष्य मात्र उसी का वरण कर उसी की स्तुति तथा उपासना में तत्पर हों ॥३॥

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    विषय

    ईश की स्तुति दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे परमदेव ! (त्वा) तुझे ही हम सब (ववृमहे) स्वीकार करते हैं । तुझको ही परमपूज्य समझते हैं, जो तू (यजिष्ठम्) परम यजनीय=पूजनीय है । (देवम्) तू ही सर्वगुणसम्पन्न है (देवत्रा) सूर्य्य, अग्नि, वायु आदि देवों में तू ही (अमर्त्यम्) मरणधर्मी है अर्थात् सूर्य्यादि सब देव मनुष्यवत् मरनेवाले हैं । एक तू ही शाश्वत अनादि अमर्त्य है । तू ही (अस्य) इस दृश्यमान (यज्ञस्य) संसाररूप यज्ञ का (सुक्रतुम्) सुकर्ता है । ऐसे तुझको ही हम मनुष्य पूजें, ऐसी बुद्धि दे ॥३ ॥

    भावार्थ

    हम मनुष्य केवल ईश्वर की ही उपासना पूजा करें, क्योंकि वही एक पूजनीय है ॥३ ॥

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    विषय

    अग्नि के दृष्टान्त से परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    ( अस्य यज्ञस्य ) इस यज्ञ के ( सु-क्रतुम् ) उत्तम रीति से बनाने और जानने वाले, ( होतारम् ) सर्व ऐश्वर्य के दाता, ( अमर्त्यम् ) अविनाशी, ( देवना देवं ) देवों, प्रकाशमान सूर्यादि के भी प्रकाशक, दाताओं के भी दाता, ( यजिष्ठं ) अति पूज्य, दानी, ( त्वा ) तुझ स्वामी को हम ( ववृमहे ) वरण करते हैं, तुझे अपनाते, तेरी स्तुति गाते, और तेरी उपासना करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'यजिष्ठ-देव-अमर्त्य' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (यजिष्ठम्) = अतिशयेन पूज्य (त्वा) = आपका (ववृमहे) = हम वरण करते हैं। जो आप (देवम्) = प्रकाशमय हैं, (देवत्रा होतारम्) = देवों में इस प्रकाश को देनेवाले हैं [हु दाने] । सूर्य आदि देव आपकी दीप्ति से ही तो दीप्त होते हैं। (अमर्त्यम्) = अविनाशी हैं। [२] हम उस प्रभु का वरण करते हैं जो (अस्य यज्ञस्य) = इस हमारे जीवनयज्ञ के (सुक्रतुम्) = [सुष्टु कर्तारम् ] उत्तमता से सम्पादित करनेवाले हैं, जीवन यज्ञ का संचालन प्रभु के द्वारा ही तो होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का ही वरण करें। यही प्रकाश प्राप्ति व अविनाश का मार्ग है। प्रभु ही जीवनयज्ञ को पूर्ण करते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We choose to worship you, Agni, most adorable, worthy of worship, self-refulgent lord over the divinities of existence, imperishable and eternal creator of the yajna of this universal order of the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आम्ही माणसांनी केवळ ईश्वराचीच उपासना पूजा करावी, कारण तोच एक पूजनीय आहे. ॥३॥

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