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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 31
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    तव॑ द्र॒प्सो नील॑वान्वा॒श ऋ॒त्विय॒ इन्धा॑नः सिष्ण॒वा द॑दे । त्वं म॑ही॒नामु॒षसा॑मसि प्रि॒यः क्ष॒पो वस्तु॑षु राजसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । द्र॒प्सः । नील॑ऽवान् । वा॒शः । ऋ॒त्वियः॑ । इन्धा॑नः । सि॒ष्णो॒ इति॑ । आ । द॒दे॒ । त्वम् । म॒ही॒नाम् । उ॒षसा॑म् । अ॒सि॒ । प्रि॒यः । क्ष॒पः । वस्तु॑षु । रा॒ज॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तव द्रप्सो नीलवान्वाश ऋत्विय इन्धानः सिष्णवा ददे । त्वं महीनामुषसामसि प्रियः क्षपो वस्तुषु राजसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव । द्रप्सः । नीलऽवान् । वाशः । ऋत्वियः । इन्धानः । सिष्णो इति । आ । ददे । त्वम् । महीनाम् । उषसाम् । असि । प्रियः । क्षपः । वस्तुषु । राजसि ॥ ८.१९.३१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 31
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 35; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (द्रप्सः) द्रवणशीलः (नीलवान्) प्रशस्तनिवासः (वाशः) कमनीयः (ऋत्वियः) ऋतुषु भावयितव्यः (इन्धानः) दीप्यमानः (तव) तव रसः (सिष्णो) हे कामप्रद ! (आददे) यज्ञेषु गृह्यते (त्वम्, महीनाम्, उषसाम्) त्वम् सर्वासामुषसाम् (प्रियः, असि) तृप्तिकरोऽसि (क्षपः, वस्तुषु) सर्वेषु वस्तुषु रसात्मकः (राजसि) प्रकाशसे ॥३१॥

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    विषयः

    पुनस्तदनुवर्त्तते ।

    पदार्थः

    हे सिष्णो=सुखवर्षितः परमात्मन् ! सिषिः सेचनार्थः । तव द्रप्सः=द्रवणशीलः संसारः । नीलवान्=श्यामवान् । सुखप्रद इत्यर्थः । वाशः=कमनीयः । ऋत्वियः=ऋतौ ऋतौ अभिनवः । इन्धानः=दीप्तिमान् । ईदृक् संसारः । आददे=आदीयते गृह्यते प्राणिभिः । आदेयोऽस्तीत्यर्थः । महीनाम् । उषसाम्=प्रातःकालानां प्रियोऽसि । उषसि हि परमात्मा ध्यायते । पुनस्त्वम् । क्षपो रात्रेर्वस्तुषु । राजसि=विराजसि । अन्धकारेऽपि तव स्थितिरस्ति ॥३१ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (द्रप्सः) द्रवणशील (नीलवान्) अत्युत्तम आधारवाला (वाशः) कमनीय (ऋत्वियः) प्रतिऋतु में उत्पाद्य (इन्धानः) दीप्तिमान् (तव) आपका रस (सिष्णो) हे कामप्रद ! (आददे) यज्ञों में ग्रहण किया जाता है (त्वम्, महीनाम्, उषसाम्) आप सब उषाकालों में (प्रियः, असि) तृप्तिकर हैं (वस्तुषु) सब वस्तुओं में (क्षपः) रसरूप से (राजसि) प्रकाशमान हो रहे हैं ॥३१॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा के ब्रह्मानन्द की समता कोई आनन्द नहीं कर सकता और जो शक्तिरूपेण प्रत्येक वस्तु में प्रकाशित हो रहा है, उसका प्रत्येक उषाकल में गान करना प्रत्येक मनुष्य को उचित है ॥३१॥

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    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    (सिष्णो) हे सुखवर्षिता ईश ! (तव) तेरा (द्रप्सः) द्रवणशील प्रवहणशील संसार (नीलवान्) श्याम अर्थात् सुखप्रद है । (वाशः) कमनीय=सुन्दर है (ऋत्वियः) प्रत्येक ऋतु में अभिनव होता है (इन्धानः) दीप्तिमान् है और (आददे) ग्रहणयोग्य है (त्वम्) तू (महीनाम्) महान् (उषसाम्) प्रातःकाल का (प्रियः+अस्ति) प्रिय है । (क्षपः) रात्रि की (वस्तुषु) वस्तुओं में भी (राजसि) शोभित होता है ॥३१ ॥

    भावार्थ

    परमात्मा और उसका कार्य्यजगत्, ये दोनों सदा चिन्तनीय हैं । वह इसी में व्याप्त है, उसके कार्य्य के ज्ञान से ही विद्वान् तृप्त होते हैं ॥३१ ॥

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    विषय

    प्रभु के अग्निरूप की व्याख्या ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार अग्नि ( इन्धानः ) चमकने वाला, ( द्रप्सः ) द्रुतगति से काष्टों का खाने वाला, ( नीलवान् ) नील धुएं वाला, ( वाश: ) कान्ति से युक्त, ( ऋत्वियः ) ऋतु २ में यज्ञ, करने योग्य, और ( सिष्णुः ) प्रत्याहुति घृत सेचने योग्य वा यज्ञ द्वारा जगत् भर में वर्षा द्वारा सेचन करने वाला होता है। इस प्रकार ( महीनाम् उषसां प्रियः ) बहुत सी कामना युक्त प्रजाओं या दाहकारिणी शक्तियों का प्रिय या पूरक होता और (क्षपः वस्तुषु राजति) रात को बसे घरों में गार्हपत्याग्नि, अन्वाहार्य पचन और दीपक रूप में चमकता है उसी प्रकार हे ( सिष्णो ) प्रेम से सबको सेचन करने वा प्रकृति में जगत् बीज को आसेचन करने वाले, मेघवत् सुखवर्षक, सर्वोत्पादक प्रभो ! ( तव द्रप्सः ) तेरा रसस्वरूप, आनन्ददायक रूप, ( नीलवान् ) सबको आश्रय देने वाला, सब विश्व को अपने में लीन करने वाला, ( वाशः ) अति कमनीय, स्तुत्य, और सब जगत् को वश करने वाला, ( ऋत्वियः ) ऋतु, प्राणों द्वारा वा वायु जलादि महान् शक्तियों से जानने योग्य, ( इन्धानः ) सूर्यादिवत् देदीप्यमान रूप से ( आ ददे ) जाना जाता है। ( त्वं ) तू ( महीनाम् ) भूमियों और (उषसाम् ) दाहक सूर्यादि को भी ( प्रियः ) पूर्ण और तृप्त करने वाला, (असि) है और ( क्षपः ) संसार का संहारक और सब ( वस्तुषु ) पदार्थों और वासयोग्य लोकों में ( राजसि ) प्रकाशमान हो रहा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    यक्ष (केनोपनिषद्)

    पदार्थ

    [१] हे (सिष्णो) = अपने प्रकाश से हमारे ध्यान को अपनी ओर खेंचनेवाले प्रभो! (तव द्रप्सः) = आपका ज्योतिष्कण [spark] (नीलवान्) = [नील] एक शुभ उद्घोषणावाला है। (वाश:) = यह एक पुकार है। (ऋत्वियः) = यह पुकार उस समय के अनुकूल होती है। (इन्धान:) = मैं अपने अन्दर ज्ञान को दीप्त करता हुआ (आददे) = इस पुकार का ग्रहण करता हूँ। [२] आप मेरे जीवन में (महीनाम्) = पूजा के लिये उचित (उषसाम्) = उषाकालों के तो (प्रियः असि) = प्रिय हैं ही। अर्थात् उषाकालों में तो मैं आपका स्मरण करता ही हूँ। आप (क्षपः) = रात्रि व (वस्तुषु) = दिनों में [वस्तु] (राजसि) = मेरे जीवन में चमकते हैं। अर्थात् मैं दिन-रात आपका स्मरण करता हूँ। यह सदा आपका स्मरण ही मेरे जीवन को पवित्र व प्रकाशमय बनाता है। [३] सर्वत्र प्रभु की ज्योति चमक रही है। विचारक को यह ज्योति अपनी ओर आकृष्ट करती है। वह सदा उस प्रभु का स्मरण करता हुआ अपने जीवन को निरभिमान बना पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- मेरे जीवन में प्रभु की ज्योति चमके प्रभु के ज्योतिष्कण से आकृष्ट होऊँ। दिन- रात प्रभु को स्मरण करता हुआ इस ज्योतिष्कण को लेने का प्रयत्न करूँ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, giver of the showers of joy in life, the world of your creation flows on like drops of soma from the press, colourful, crackling voluble, exciting and fresh through the seasons, bright and beautiful, passionately lovable. You are darling of the glory of dawns and you shine ever in the glimmerings of the dusk and reflect in the ripples of water.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा व त्याचे कार्यजगत हे दोन्ही सदैव चिंतनीय आहेत. तो त्यातच व्याप्त आहे. त्याच्या कार्याच्या ज्ञानानेच विद्वान तृप्त होतात. ॥३१॥

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