ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 12
ऊ॒र्ध्वा हि ते॑ दि॒वेदि॑वे स॒हस्रा॑ सू॒नृता॑ श॒ता । ज॒रि॒तृभ्यो॑ वि॒मंह॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्वा । हि । ते॒ । दि॒वेऽदि॑वे । स॒हस्रा॑ । सू॒नृता॑ । श॒ता । ज॒रि॒तृऽभ्यः॑ । वि॒ऽमंह॑ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वा हि ते दिवेदिवे सहस्रा सूनृता शता । जरितृभ्यो विमंहते ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्वा । हि । ते । दिवेऽदिवे । सहस्रा । सूनृता । शता । जरितृऽभ्यः । विऽमंहते ॥ ८.४५.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 44; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 44; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Your kindness and generosity rises day by day a hundredfold and a thousandfold, higher and higher, and as it rises, it blesses them.
मराठी (1)
भावार्थ
विशेष - अंतरात्म्याबाबतही या ऋचांचा अर्थ करता येतो. जो आत्मा सिद्ध तपस्वी जितेन्द्रिय लोकोपकारी बनतो त्याला लोक साहाय्य करतात. या प्रकारे दोन-तीन अर्थ दाखविता येतात, परंतु ग्रंथविस्ताराच्या भयाने कोणताही एक अर्थ भाष्यान्वित केला जाऊ शकतो यावर लक्ष ठेवले पाहिजे. ॥१२॥
संस्कृत (1)
विषयः
अतः परमिन्द्रवाच्य ईशः स्तूयते ।
पदार्थः
हे इन्द्र । ते=तव । जरितृभ्यः=स्तुतिपाठकेभ्यः । जनता दिवेदिवे=प्रतिदिनम् । बहुधनम् । विमंहते=ददाति । किं ददातीत्यपेक्षायामाह−ऊर्ध्वा=ऊर्ध्वानि=मुख्यानि । सूनृता= सूनृतानि । सहस्रा=सहस्राणि । शता=शतानि । वस्तूनि ददाति ॥१२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
यहाँ से इन्द्रवाच्य ईश्वर की स्तुति कहते हैं ।
पदार्थ
हे इन्द्र ! (ते) तेरे (जरितृभ्यः) स्तुतिपाठकों को (दिवे दिवे) प्रतिदिन जनता बहुत धन (वि+मंहते) दिया करती है (ऊर्ध्वा) श्रेष्ठ और मुख्य वस्तु देती है । (सूनृता) उनके निकट सत्यसाधन उपस्थित करती है तथा (सहस्रा+शता) अनेक प्रकार के बहुविध धन देती है ॥१२ ॥
टिप्पणी
अन्तरात्मा में भी ये ऋचाएँ घट सकती हैं । जो आत्मा सिद्ध तपस्वी जितेन्द्रिय लोकोपकारी बनता है, उसको लोग क्या नहीं देते हैं । इस प्रकार दो तीन पक्ष दिखलाए जा सकते हैं । परन्तु ग्रन्थविस्तार के भय से कोई एक ही पक्ष भाष्यान्वित किया जाता है । इस पर ध्यान रखना चाहिये ॥१२ ॥
विषय
दानशील।
भावार्थ
( वि-मंहते ) विविध ऐश्वर्य देने वाले (ते) तेरे लिये ( जरितृभ्यः ) स्तुतिकर्त्ता विद्वानों की (शता सहस्रा) सैकड़ों, हज़ारों (सूनृता ऊर्ध्वा) वाणियां ऊपर उठती हैं। उसी प्रकार विद्वानों के लिये तुझ दानशील के सैकड़ों हज़ारों उत्तम २ ( सूनृता ) धनैश्वर्यं हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
'सहस्त्रा शता' सूनृता
पदार्थ
[१] हे प्रभो! (ते) = आपके (सहस्रा) = सहस्रों व (शता)-सैंकड़ों अथवा (सहस्त्रा) = [सहस्] आनन्दप्रद (शता) = शत वर्ष पर्यन्त चलनेवाले (सूनृता) = सौभाग्ययुक्त धन (दिवे-दिवे) = प्रतिदिन (हि) = निश्चय से (ऊर्ध्वा) = ऊपर उठे हुए हैं, अर्थात् उद्यत हैं। [२] (जरितृभ्यः) = स्तोताओं के लिए दिये जानेवाले इन धनों को यह उपासक (विमंहते) = विशेषरूप से स्तुत करता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की देन सैंकड़ों व सहस्रों हैं। एक स्तोता उन देनों का गायन करता है।
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