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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 37
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    को नु म॑र्या॒ अमि॑थित॒: सखा॒ सखा॑यमब्रवीत् । ज॒हा को अ॒स्मदी॑षते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः । नु । म॒र्याः॒ । अमि॑थितः । सखा॑ । सखा॑यम् । अ॒ब्र॒वी॒त् । ज॒हा । कः । अ॒स्मत् । ई॒ष॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    को नु मर्या अमिथित: सखा सखायमब्रवीत् । जहा को अस्मदीषते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कः । नु । मर्याः । अमिथितः । सखा । सखायम् । अब्रवीत् । जहा । कः । अस्मत् । ईषते ॥ ८.४५.३७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 37
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 49; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O people, which friend without provocation would revile a friend, who would forsake a friend in distress, who runs away from us like that?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    खरा मित्र आपल्या मित्रावर कधी निष्कारण दोषारोपण करत नाही किंवा संकटात साथ सोडत नाही. ॥३७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे मर्याः=हे मनुष्याः । को नु=कः खलु । सखा । अमिथितः=अबाधितः=अपराधरहितोऽपि सन् । स्वकीयम् । सखायम्=मित्रम् । अब्रवीत्=कथयति । दोषारोपणं करोति । कः खलु=सखायम् । जहा=जहाति त्यजति दुःखे । कश्च अस्मत् । ईषते=पलायत इति ब्रवीति ॥३७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (मर्य्याः) हे मनुष्यों ! (कः+नु) कौन (सखा) मित्र (अमिथितः) अबाधित होने पर भी अर्थात् निष्कारण (सखायम्) अपने मित्र को (अब्रवीत्) कहता है अर्थात् मित्र के ऊपर दोषारोपण करता है, (कः) कौन कृतघ्न मित्र अपने मित्र को आपत्ति में (जहा) छोड़ता है और कौन कहता है कि (अस्मत्) हमको छोड़कर हमसे दूर (ईषते) मित्र भाग गया है ॥३७ ॥

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    विषय

    श्रेष्ठ राजा, उससे प्रजा की न्यायानुकूल नाना अभिलाषाएं।

    भावार्थ

    हे ( मर्याः ) मनुष्यो ! ( कः सखा ) कौन मित्र स्नेही ( अमिथितः ) विना अनादर युक्त वचन कहा जाकर ही ( सखायम् अब्रवीत् ) अपने मित्र को कह सकता है। (कः जहा) कौन किसको मारता है ( क अस्मत् ईषते ) कौन हम से बिना ताड़ित हुए भयभीत होकर भागता है ? जब कोई किसी को नहीं मारता तो कोई किसी से भय खा कर भी नहीं भागता और न कोई किसी पर उपालम्भ देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    अनाक्रुष्ट जीवन

    पदार्थ

    [१] हे (मर्या:) = मनुष्यो ! (कः नु) = कौन (अमिथितः) = अनाक्रुष्ट जीवनवाला - अनिन्दित (सखा) = मित्र (सखायं) = मित्र को (अब्रवीत्) = कहता है कि (कः जहा) = कौन हमें मारता है, (कः) = कौन (अस्मत्) = हमारे से (ईषते) = भयभीत होता है? [२] पवित्र जीवनवाले साथी मिलते हैं तो परस्पर यही कहते हैं कि न हम किसी को भयभीत करें, न किसी से भयभीत हों। = इस प्रकार की ही चर्चा करें कि 'न हम किसी

    भावार्थ

    भावार्थ- वे ही मित्र श्रेष्ठ हैं, जोकि परस्पर से मारे जाएँ, न हम किसी को मारें ।

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