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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 30
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यः कृ॒न्तदिद्वि यो॒न्यं त्रि॒शोका॑य गि॒रिं पृ॒थुम् । गोभ्यो॑ गा॒तुं निरे॑तवे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । कृ॒न्तत् । इत् । वि । यो॒न्यम् । त्रि॒ऽशोका॑य । गि॒रिम् । पृ॒थुम् । गोऽभ्यः॑ । गा॒तुम् । निःऽए॑तवे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः कृन्तदिद्वि योन्यं त्रिशोकाय गिरिं पृथुम् । गोभ्यो गातुं निरेतवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । कृन्तत् । इत् । वि । योन्यम् । त्रिऽशोकाय । गिरिम् । पृथुम् । गोऽभ्यः । गातुम् । निःऽएतवे ॥ ८.४५.३०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 30
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 47; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I adore Indra who makes and breaks the cloud, womb of waters, and the mighty mountain for the humanity of threefold purity of nature, character and behaviour and who makes the paths for rivers to flow on earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! परमात्म्याची महान शक्ती पाहा. जर जल नसते तर या पृथ्वीवर एकही जीव दिसला नसता. ही त्याची कृपा आहे की, त्याने असे मेघ निर्माण केलेले आहेत ज्यांचा मार्गही भूमीवर तयार केला तोच पूज्य आहे. ॥३०॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    य इत्=य एवेन्द्रः । हि=यतः । त्रिशोकाय=जीवाय । “त्रिशोको जीवो भवति । त्रयोऽस्य शोकाः शोकस्थानीयाः । कर्मेन्द्रियाणि ज्ञानेन्द्रियाणि । मनश्च । एतैरेव बद्धो भवति” । योन्यम्=सर्वेषां योनिम्=कारणम् । पृथुम्=विस्तीर्णम् । गिरिम्=मेघम् । गिरिरिति मेघनाम । निघण्टुः । कृन्तत्=कृन्तति छिनत्ति । तथा । गोभ्यो जलेभ्यः । निरेतवे=निर्गमनाय । गातुं पृथिवीम् । करोतीति शेषः । अतः स उपास्य इत्यर्थः ॥३० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (हि) जिस कारण (यः+इत्) जो ही इन्द्रवाच्य परमात्मा (त्रिशोकाय) निखिल जीवों के लिये (योन्यम्) सबके कारण (पृथुम्) विस्तीर्ण=सर्वत्र फैलनेवाले (गिरिम्) मेघ को (कृन्तत्) बनाता है और (गोभ्यः) उन जलों को (निरेतवे) अच्छे प्रकार चलने के लिये (गातुम्) पृथिवी को भी बनाता है ॥३० ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! परमात्मा की महती शक्ति देखो । यदि जल न होता, तो इस पृथिवी पर एक भी जीव न देख पड़ता । यह उसकी कृपा है कि उसने ऐसा मेघ बनाया और उसका मार्ग भी भूमि पर तैयार किया, वही पूज्य है ॥३० ॥

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    विषय

    श्रेष्ठ राजा, उससे प्रजा की न्यायानुकूल नाना अभिलाषाएं।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य ( योन्यं ) जल से पूर्ण ( पृथुम् गिरिम् ) भारी मेघ को ( वि-कृन्तत् ) विविध प्रकार से छिन्न भिन्न करता और ( गोभ्यः निरेतवे गातुं ) किरणों के निकलने के लिये मार्ग बना लेता है, उसी प्रकार ( यः ) जो पराक्रमी पुरुष ( त्रि-शोकाय ) तीनों प्रकार के तेजों को प्राप्त करने के लिये, ( योन्यं ) जल से पूर्ण ( पृथुम् गिरिम् ) भारी पर्वत को, ( विकृन्तत् ) विविध स्थानों से काटता और ( गोभ्यः निरेतवे ) वेगयुक्त जलधाराओं के निकलने के लिये मार्ग, भूमि तैयार करता है वही राजा श्रेष्ठ है उसी की प्रशंसा करें। इसी प्रकार परमेश्वर भी ( त्रि-शोकाय ) जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों स्थानों में प्रकट होने वाले जीव के लिये ( योन्यं ) योनि अर्थात् गृहवत् देहमय ( पृथुम् गिरिम् ) भारी पर्वतवत् पिण्ड को ( विकृन्तत् ) विविध प्रकार से छेदन करता और ( गोभ्यः ) इन्द्रियों के (निरेतवे) बाहर निकलने के लिये चक्षु नाक आदि के ( गातुं ) द्वार बनाता है वही आत्मा प्रभु गुण-गान करने योग्य है। अध्यात्म का इस पक्ष का स्पष्टीकारण देखो ऐतरेय उपनिषत् में इन्द्रिय भेद प्रकरण। इति सप्तचत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    योन्यं 'गिरिम्'

    पदार्थ

    [१] शरीर में नाड़ियाँ ' नदियाँ' हैं तो अस्थियाँ 'पर्वत' । रीढ़ ही हड्डी मेरुदण्ड व मेरुपर्वत है। यह विशाल पर्वत है- अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पर्वत है। इसमें 'इडा पिंगला, सुषुम्णा' इन तीन नाड़ियों का स्थान है। इनमें 'इडा' ही गंगा है, 'पिंगला' यमुना तथा 'सुषुम्णा' सरस्वती है। प्राणसाधना द्वारा सुषुम्णा का जागरण होता है (यः) = जो भी (योन्यं) = शरीररूप योनि व गृह में होनेवाले (पृथुं गिरिं) = इस विशाल मेरुदण्ड रूप पर्वत को (इत्) = निश्चय से (विकृन्तत्) = छिन्न करता है, अर्थात् (सुषुम्णा) = के द्वार को खोलता है वह (त्रिशोकाय) = तीनों दीप्तियों के लिये होता है- यह शरीर, मन व बुद्धि तीनों को दीप्त करता है। [२] यह साधक ही (गोभ्यः) = ज्ञान की वाणियों के (निरेतवे) = निश्चय से प्राप्त होने के लिए (गातुम्) = मार्ग को बनाते हैं। इस प्राणसाधना से ज्ञान का निश्चय से वर्धन होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम शरीरस्थ मेरुदण्डरूप मेरुपर्वत में स्थित इडा, पिंगला व सुषुम्णा आदि नाड़ियों के द्वारों को प्राणसाधना द्वारा खोलें और ज्ञान की वाणियों की प्राप्ति के लिए मार्ग को तैयार करें।

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