ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 19
यच्चि॒द्धि ते॒ अपि॒ व्यथि॑र्जग॒न्वांसो॒ अम॑न्महि । गो॒दा इदि॑न्द्र बोधि नः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । चि॒त् । हि । ते॒ । अपि॑ । व्यथिः॑ । ज॒ग॒न्वांसः॑ । अम॑न्महि । गो॒ऽदाः । इत् । इ॒न्द्र॒ । बो॒धि॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्चिद्धि ते अपि व्यथिर्जगन्वांसो अमन्महि । गोदा इदिन्द्र बोधि नः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । चित् । हि । ते । अपि । व्यथिः । जगन्वांसः । अमन्महि । गोऽदाः । इत् । इन्द्र । बोधि । नः ॥ ८.४५.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 19
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 45; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 45; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
And also, when we approach you in our mind and, like supplicants in distress, remember you and pray, then attend to us and be generous. You are the giver of cows, lands and light of knowledge.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा जेव्हा माणूस संकटात असतो तेव्हा तेव्हा ईश्वराच्या मदतीची इच्छा करतो यात संशय नाही; परंतु संकटातच स्मरण न करता सदैव ईश्वराच्या आज्ञेप्रमाणे वागा. तेव्हाच कल्याण होईल. ॥१९॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! अपिचित्=अपि च । यद्=यदा हि । वयम् । व्यथिः=दुःखैर्व्यथिताः । ते=तवाभिमुखम् । जगन्वांसः= गन्तारो भूत्वा । त्वामेव । अमन्महि=स्मरामः । तदा हे इन्द्र ! गोदा इत्=गोदाता भूत्वैव त्वम् । नोऽस्मान् । बोधि=बुद्ध्यस्व ॥१९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे इन्द्र ! (अपि+चित्) और भी (यद्) जब-२ हम (व्यथिः) दुःखों से व्यथित होते हैं, तब-२ (ते) आपकी ओर (जगन्वांसः) जाते हुए हम (अमन्महि) आपका स्मरण करते हैं, (इन्द्र) हे इन्द्र ! तब-२ आप (गोदाः+इत्) गोदाता होकर ही (नः) हमारी प्रार्थना (बोधि) जानें, प्रार्थना पर ध्यान देवें ॥१९ ॥
भावार्थ
इसमें सन्देह नहीं कि जब-२ मनुष्य आपद्ग्रस्त होता है, तब-२ ईश्वर का साहाय्य चाहता है, परन्तु सो न करके सदा ईश्वर की आज्ञा पर चलो, तब ही कल्याण है ॥१९ ॥
विषय
उस से नाना प्रार्थनाएं, शरणयाचना।
भावार्थ
( यत् चित् हि ) जब भी ( व्यथिः ) दुःखित होकर हम ( ते जगन्वांसः ) तेरे शरण जाकर ( अमन्महि ) तेरा मनन करें, हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तब भी तू (नः) हमें ( गो-दाः ) उत्तम वाणी देने हारा होकर हमें ( बोधि ) ज्ञान प्रदान कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
गो-दाः इन्द्रः
पदार्थ
[१] (यत् चित् हि) = जब निश्चय से (व्यथिः) = पीड़ित हुए हुए हम (ते जगन्वांसः) = आपके समीप आनेवाले होकर (अमन्महि) = आपका मनन व स्तवन करें, तो हे (इन्द्र) = ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले प्रभो! आप (नः) = हमारे लिए (इत्) = निश्चय से (गो-दा:) = ज्ञान की वाणियों को देनेवाले होकर (बोधि) = हमें उद्बुद्ध करनेवाले हों। [२] आपसे प्राप्त ज्ञान के द्वारा हम ठीक मार्ग पर चलते हुए अपने कष्टों को दूर कर सकें। यह ज्ञान हमारे अन्दर पवित्रता का संचार करके हमारे पापों व कष्टों को दूर करनेवाला हो।
भावार्थ
भावार्थ - इस संसार के भवसागर में विषयों के ग्राहों से पीड़ित होकर जब हम प्रभु का स्मरण करते हैं, तो प्रभु हमें ज्ञान देकर उनकी पकड़ से छुड़ाते हैं और हमारे कष्टों का अन्त करते हैं।
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