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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 31
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यद्द॑धि॒षे म॑न॒स्यसि॑ मन्दा॒नः प्रेदिय॑क्षसि । मा तत्क॑रिन्द्र मृ॒ळय॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । द॒धि॒षे । म॒न॒स्यसि॑ । म॒न्दा॒नः । प्र । इत् । इय॑क्षसि । मा । तत् । कः॒ । इ॒न्द्र॒ । मृ॒ळय॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्दधिषे मनस्यसि मन्दानः प्रेदियक्षसि । मा तत्करिन्द्र मृळय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । दधिषे । मनस्यसि । मन्दानः । प्र । इत् । इयक्षसि । मा । तत् । कः । इन्द्र । मृळय ॥ ८.४५.३१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 31
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 48; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, whatever you hold, whatever you think and desire, whatever you give, why not for me? O lord, pray be kind and gracious.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    याचा आशय असा आहे की, आमच्यासाठी तुला अनेक क्लेश सहन करावे लागतात. आम्ही सदैव तुझी याचना करतो. कर्माप्रमाणे तू आम्हाला देत असतोस. तू आमच्यासाठी इतके कर की ज्यामुळे आम्ही सुखी राहावे. ॥३१॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! मन्दानः=स्तुतिपाठकान् प्रति प्रीतः सन् । यद् वस्तु त्वं दधिषे=धारयसि । यन्मनस्यसि=कर्त्तुं मनसि अवधारयसि । यद्वा यदपि । प्र+इयक्षसि=इत्=प्रयच्छसि एव ॥३१ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्यशालिन् परमोदार देव ! (मन्दानः) स्तुतिपाठकों के ऊपर प्रसन्न होकर उनको देने के लिये (यद्+दधिषे) जो वस्तु रखते हैं अथवा (मनस्यसि) करने का मन में निश्चय करते हैं यद्वा (प्र+इयक्षसि+इत्) जो वस्तु देही देते हैं । (तत्+मा+कः) वे सब आप करें या न करें, किन्तु (मृळय) हमको सब तरह से सुखी बनावें ॥३१ ॥

    भावार्थ

    इसका आशय यह है कि हमारे लिये आपको अनेक क्लेश उठाने पड़ते हैं । हम आपसे सदा माँगते रहते हैं, आप यथाकर्म उसे देते रहते हैं । यह सब न करके आप केवल हमारे लिए उतना कीजिये, जिससे हम सुखी रहें ॥३१ ॥

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    विषय

    श्रेष्ठ राजा, उससे प्रजा की न्यायानुकूल नाना अभिलाषाएं।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ( यत् ) जिस जगत् वा देह को आत्मवत् तू (दधिषे) धारण करता है, (यत् मनस्यसि) जिसको तू मनन द्वारा संकल्प करता है और ( मन्दानः ) हर्षित होकर ( यत् प्र इयक्षसि इत् ) प्राप्त या व्याप्त होता है, ( मा तत् कः ) क्या तू उसको नहीं बनाता, अथवा हे प्रभो स्वामिन् ! तू (ततू मा कः) उसे तू नाश मत कर। ( मृडय) उस जगत् को तू सुखी कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    दधिषे-मनस्यसि-इयक्षसि

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (मन्दान:) = स्तुति किये जाते हुए आप (यद्) = जिस शुभ को (दधिषे) = धारण करते हैं, (मनस्यसि) = हमारे लिए देने का संकल्प करते हैं और (इत्) = निश्चय से (इयक्षसि) = [प्रयच्छसि] हमारे लिए देते हैं, (तत्) = उसे (मा कः) = मत नष्ट करिये। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप शुभ वस्तुओं को देकर हमारे लिए (मृळय) = सुख को करनेवाले होइये।

    भावार्थ

    भावार्थ- हे प्रभो ! आप जिस शुभ को धारण करते हैं-हमारे लिए देने का संकल्प करते हैं और हमारे लिए देते हैं, उसे नष्ट न करिये, हमारे लिए दीजिए ही और हमें सुखी करिये।

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