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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 32
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    द॒भ्रं चि॒द्धि त्वाव॑तः कृ॒तं शृ॒ण्वे अधि॒ क्षमि॑ । जिगा॑त्विन्द्र ते॒ मन॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒भ्रम् । चि॒त् । हि । त्वाव॑तः । कृ॒तम् । शृ॒ण्वे । अधि॑ । क्षमि॑ । जिगा॑तु । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । मनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दभ्रं चिद्धि त्वावतः कृतं शृण्वे अधि क्षमि । जिगात्विन्द्र ते मन: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दभ्रम् । चित् । हि । त्वावतः । कृतम् । शृण्वे । अधि । क्षमि । जिगातु । इन्द्र । ते । मनः ॥ ८.४५.३२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 32
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 48; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Just a little done by someone like you or someone protected by you resounds on the earth. O lord, I pray, may your gracious attention turn to me also.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    याचा आशय स्पष्ट आहे. ज्याच्यावर परमेश्वराची कृपा असते तो पृथ्वीवर प्रसिद्ध होतो. हे दृश्य पाहून उपासक म्हणतो की, हे इन्द्र मीही तुझे पात्र बनून प्रसिद्ध व्हावे. अशा प्रार्थना वेदात आहेत. ॥३२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! त्वावतः=त्वया रक्षितस्य पुरुषस्य । दभ्रं चिद्+हि=स्वल्पमपि । कृतं=कर्म । अधिक्षमि= क्षमायामधि । शृण्वे=विश्रुतं भवति । अतो हे भगवन् ! ते=तव । मनः मामपि । जिगातु=गच्छतु ॥३२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! (त्वावतः) तुमसे रक्षित जन का (दभ्रम्+चित्+हि) बहुत थोड़ा भी (कृतम्) कृत कर्म (क्षमि+अधि) इस पृथिवी पर (शृण्वे) विख्यात हो जाता है, फैल जाता है, इस हेतु (ते+मनः) आपका मन अर्थात् आपकी वैसी कृपा मुझमें भी (जिगातु) प्राप्त होवे । मेरी भी कीर्ति पृथिवी पर फैले सो करें ॥३२ ॥

    भावार्थ

    इसका आशय विस्पष्ट है । जिसके ऊपर परमात्मा की कृपा होती है, वह पृथिवी पर सुप्रसिद्ध हो जाता है । यह दृश्य देख उपासक कहता है कि हे इन्द्र ! मैं भी आपका पात्र बनकर देशविख्यात होऊँ इत्यादि । ऐसी शुभ इच्छा बहुत पुरुषों की होती है । यह मानवस्वभाव है, अतः ऐसी ऐसी प्रार्थना वेद में आती हैं ॥३२ ॥

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    विषय

    श्रेष्ठ राजा, उससे प्रजा की न्यायानुकूल नाना अभिलाषाएं।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वावतः ) तेरे जैसे स्वामी का (दभ्रं चित्) थोड़ा भी ( कृतं ) किया कार्य ( अधि क्षमि ) भूमि पर ( शृण्वे ) प्रसिद्ध सुना जाता है ( ते मनः ) तेरा मन ( जिगातु ) आगे बढ़े।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    सन्त की वाणी व क्रिया का महत्त्व

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! (त्वावतः) = आपको धारण करनेवाले का (दभ्रं) = थोड़ा-सा (चित् हि) = भी (कृतं) = किया हुआ (अधिक्षमि) = इस पृथिवी पर (शृण्वे) = प्रसिद्ध रूप में सुना जाता है, अर्थात् आपको धारण करनेवाले की छोटी-सी क्रिया का भी बड़ा महत्त्व होता है-लोगों पर उसका बड़ा प्रभाव होता है। [२] सो हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (मनः) = हमारा मन (ते जिगातु) = आपके प्रति जानेवाला हो। हम सदा आपको स्मरण करें और आपका धारण करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु को धारण करनेवाले की छोटी-सी क्रिया भी बड़ी महत्त्वपूर्ण होती है। उसका एक शब्द भी बड़ा प्रभाव पैदा करता है।

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