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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 34
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    मा न॒ एक॑स्मि॒न्नाग॑सि॒ मा द्वयो॑रु॒त त्रि॒षु । वधी॒र्मा शू॑र॒ भूरि॑षु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । नः॒ । एक॑स्मिन् । आग॑सि । मा । द्वयोः॑ । उ॒त । त्रि॒षु । वधीः॑ । मा । शू॒र॒ । भूरि॑षु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा न एकस्मिन्नागसि मा द्वयोरुत त्रिषु । वधीर्मा शूर भूरिषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । नः । एकस्मिन् । आगसि । मा । द्वयोः । उत । त्रिषु । वधीः । मा । शूर । भूरिषु ॥ ८.४५.३४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 34
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 48; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of magnanimous glory among the great heroes, not for one trespass, not for two, not for three, not even for many, uncountable, pray, hurt us not, and strike us not.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणूस हा अंत:करणाने दुर्बल आहे. तो वारंवार ईश्वरीय आज्ञा भंग करतो. त्याच्याकडून सहजपणे अनेक अपराध होतात. तो पाहतो की, या सर्वांच्या मोबदल्यात जर मला शिक्षा मिळाली तर मी सदैव कारागृहात (बंधनात) राहीन. त्यासाठी मानव दुर्बलतेमुळे प्रार्थना करीत असतो. ॥३४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे शूर ! महावीर परेश ! नोऽस्मान् । एकस्मिन् आगसि अपराधे सति । मा वधीः=मा हिंसीः । द्वयोरागसोः अस्मान् मा वधीः । त्रिषु+आगःसु । अस्मान् मा वधीः । हे ईश ! भूरिषु आगःसु । मा वधीः ॥३४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (शूर) हे न्यायी महावीर परेश ! (नः) हम दुर्बल जनों को (एकस्मिन्+आगसि) एक अपराध होने पर (मा+वधीः) मत दण्डित करें । (द्वयोः) दो अपराध हो जाने पर (मा) हमको दण्ड न देवें (त्रिषु) तीन अपराध होने पर भी हमको दण्ड न देवें । किं बहुना (भूरिषु) बहुत अपराध होने पर भी (माः) हमको दण्ड न देवें ॥३४ ॥

    भावार्थ

    मनुष्य अन्तःकरण से दुर्बल है । वह बारम्बार ईश्वरीय आज्ञाओं को तोड़ता रहता है । उससे बात-बात में अनेक अपराध हो जाते हैं । देखता है कि इन सबके बदले में यदि मुझको दण्ड मिला तो सदा कारागार में मैं निगडित ही रहूँगा । अतः मानवदुर्बलता के कारण ऐसी प्रार्थना होती है ॥३४ ॥

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    विषय

    श्रेष्ठ राजा, उससे प्रजा की न्यायानुकूल नाना अभिलाषाएं।

    भावार्थ

    हे ( शूर ) शूरवीर ! ( एकस्मिन् आगसि ) एक अपराध पर ( नः मा वधीः ) हम प्रजाओं को पीड़ित मत कर, ( मा द्वयोः ) दो अपराधों पर भी हम सबको पीड़ित मत कर, ( उत् त्रिषु ) और तीन अपराधों पर हम सब को पीड़ित मात कर (भूरिषु ) बहुत अधिक अपराध होने पर भी हम सबको दण्डित मत कर, प्रत्युत जिसका अपराध हो उसी न्यायानुसार दण्डित कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    अनन्त कृपालु प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! आप (नः) = हमें (एकस्मिन् आगसि) = एक अपराध में (मा वधीः) = मत हिंसित करिये। (द्वयोः) = दो अपराधों में भी (मामत) = दण्डित करिये। (उत) = और (त्रिषु) = तीन अपराधों में भी आपने हमें हिंसित न करना। [२] हे शूर ! (भूरिषु) = बहुत अपराधों के होने पर भी हमें (मा वधीः) = हिंसित न करियेगा । हमारे से कदम-कदम पर गलतियाँ तो होंगी ही। शक्ति व ज्ञान की अल्पता के कारण जब हम गलतियाँ कर बैठें, तो भी हम आपके कोपभाजन न हों। आप जैसे परम मित्र के द्वारा उत्तम प्रेरणा को प्राप्त कर हम शुभ मार्ग पर आगे बढ़ें।

    भावार्थ

    भावार्थ-हम गलतियों के होने पर भी प्रभु के अनग्रह के ही पात्र हों। प्रभु प्रेरणा को प्राप्त करके अपराधों से ऊपर उठें।

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