Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 4
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ बु॒न्दं वृ॑त्र॒हा द॑दे जा॒तः पृ॑च्छ॒द्वि मा॒तर॑म् । क उ॒ग्राः के ह॑ शृण्विरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । बु॒न्दम् । वृ॒त्र॒ऽहा । द॒दे॒ । जा॒तः । पृ॒च्छ॒त् । वि । मा॒तर॑म् । के । उ॒ग्राः । के । ह॒ । शृ॒ण्वि॒रे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ बुन्दं वृत्रहा ददे जातः पृच्छद्वि मातरम् । क उग्राः के ह शृण्विरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । बुन्दम् । वृत्रऽहा । ददे । जातः । पृच्छत् । वि । मातरम् । के । उग्राः । के । ह । शृण्विरे ॥ ८.४५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 42; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the mighty soul, destroyer of evil, bom to self consciousness, takes to the bow and arrow, blazing, fearsome, breaker of foes, he asks the mother, spirit of higher vision and discrimination: Who are the enemies renowned to be terrible and irresistible?

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा उपासक ईश्वराची स्तुती प्रार्थना करतो तेव्हा त्याचा आत्मा शुद्ध, पवित्र होऊन बलवान होतो. तो आत्मा आपल्या जवळ पापांना कधी येऊ देत नाही. त्या अवस्थेत तो ‘वृत्रहा’ ‘नमूचि’ ‘सुदान’ इत्यादी पदांनी भूषित होतो व जणू आपल्या रक्षणासाठी सदैव अस्त्र-शस्त्रांनी सुसज्जित होतो. त्यावेळी जणू तो बुद्धीला विचारतो की माझे किती व कोण कोण शत्रू आहेत इत्यादी आशय आहे. यावरून ही शिकवण दिली जाते की, जर तुमचा वास्तविक सखा आत्मा आहे तर त्याचा उद्धार करणे परम धर्म आहे व उद्धार केवळ कर्म व उपासनेनेच होऊ शकतो. ॥४॥

    टिप्पणी

    विशेष - माता या प्रकरणात माता शब्दाने बुद्धीचे ग्रहण केलेले आहे. कारण तीच जीवाला चांगली संमती देत राहते व सुमतीच आत्म्याला पुष्ट व बलवान करते. त्यासाठी माता म्हणविली जाते. राजाच्या अर्थानुसार सभाच माता असते. इत्यादी अर्थ संशोधनीय आहेत.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    वृत्रहा=वृत्रान् विघ्नान् हन्तीति वृत्रहा । आत्मा । जातः=प्रसिद्धः । बुन्दमिषुमाददे=गृह्णाति । बुन्द इषुर्भवति । नि० ६ । ३२ । इति । इषुमादाय । के उग्राः । के च । शृण्विरे वीर्य्येण विश्रुताः सन्तीति मातरं बुद्धिम् । विपृच्छत्=विपृच्छति ॥४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (वृत्रहा) निखिलविघ्नविनाशक (जातः) प्रसिद्ध आत्मा अर्थात् जो आत्मा विघ्नविनाश करने में प्रसिद्ध है, वह (बुन्दम्+आददे) निज सदाचार की रक्षा और अन्याय को रोकने के लिये सदा उपासना और कर्मरूप बाण को हाथ में रखता है और उसको लेकर (मातरम्) बुद्धिरूपा माता से (विपृच्छत्) पूछता है कि (के) कौन मेरे (उग्राः) भयङ्कर शत्रु हैं और (के+ह) कौन (शृण्विरे) प्रसिद्ध शत्रु सुने जाते हैं ॥४ ॥

    भावार्थ

    जब उपासक ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करता रहता है, तब उसका आत्मा शुद्ध पवित्र होकर बलिष्ठ हो जाता है । वह आत्मा अपने निकट पापों को कदापि आने नहीं देता है । उस अवस्था में वह वृत्रहा, नमुचि, सूदन आदि पदों से भूषित होता है और मानो अपनी रक्षा के लिये सदा अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित रहता है । उस समय मानो, यह बुद्धि से पूछता है मेरे कितने और कौन-२ शत्रु हैं इत्यादि इसका आशय है । इससे यह शिक्षा दी गई है कि आत्मा यदि तुम्हारा वास्तव में सखा है, तो उसका उद्धार करना ही परमधर्म है । वह केवल कर्म और उपासना से हो सकता है ॥४ ॥

    टिप्पणी

    माता=इस प्रकरण में माता शब्द से बुद्धि का ग्रहण है, क्योंकि वही जीव को अच्छी सम्मति देती रहती है और सुमति ही आत्मा को पुष्ट और बलिष्ठ बनाती है, अतः माता कहलाती है, राजा पक्ष में सभा ही माता है इत्यादि अर्थ अनुसन्धेय हैं ॥४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राजा का भूमि-माता के प्रति कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( जातः ) अभिषिक्त हुआ, प्रसिद्ध ( वृत्र-हा ) दुष्ट पुरुषों का मेघों को विद्युत्चत् ताड़ित करने वाला वीर पुरुष जब ( बुन्दं ) वाण, दुष्ट के भेदन करनेवाले, भयप्रद आयुध या सैन्य आदि को (आ ददे) अपने हाथ में ले तो वह ( मातरं ) अपनी माता के समान भूमि, राष्ट्र-प्रजा वा विदुषी राजसभा से ( पृच्छद् ) पूछे, कि ( के उग्राः ) कौन दुष्ट उग्र होकर प्रजा को सताते हैं और (के ह) कौन (शृणिवरे) दुष्ट संतापकारी सुने जाते हैं। वह उनका पता लगा २ कर उनको दण्डित करे।

    टिप्पणी

    बुन्दः – इषु र्भवति बुन्दो वा, भिन्दो वा, भयदो वा, भासमानो द्रवतीति वा॥ नि० ६। ६। ४॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वीर सन्तानों का जन्म

    पदार्थ

    [१] प्रभु के उपासकों के घरों में वीर सन्तानों का ही जन्म होता है। ऐसा सन्तान (वृत्र-हा) = वासना को विनष्ट करनेवाला होता है। यह (जातः) = उत्पन्न हुआ हुआ ही (बुन्दं) = इषु को [बाण को] (आददे) = ग्रहण करत है और (मातरं वि पृच्छद्) = माता से पूछता है कि (के के उग्रः) = कौन-कौन तेज स्वभाववाले- अत्याचार करनेवाले (ह) = निश्चय से (शृणिवरे) = सुने जाते हैं। [२] यहाँ काव्यमय भाषा में कहते हैं कि यह वृत्रहा सन्तान जन्म से ही वीरता की भावना से ओत-प्रोत होता है। इसके अन्दर शत्रुविनाश की भावना ओत-प्रोत होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ:- एक वीर सन्तान जन्म से ही वीरता की भावना को लिए हुए अत्याचारियों के दमन के लिए उत्साह सम्पन्न होता है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top