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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 7
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यदा॒जिं यात्या॑जि॒कृदिन्द्र॑: स्वश्व॒युरुप॑ । र॒थीत॑मो र॒थीना॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । आ॒जिम् । याति॑ । आ॒जि॒ऽकृत् । इन्द्रः॑ । स्व॒श्व॒ऽयुः । उप॑ । र॒थिऽत॑मः । र॒थीना॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदाजिं यात्याजिकृदिन्द्र: स्वश्वयुरुप । रथीतमो रथीनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । आजिम् । याति । आजिऽकृत् । इन्द्रः । स्वश्वऽयुः । उप । रथिऽतमः । रथीनाम् ॥ ८.४५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 43; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And remember: When Indra goes to battle, fiercely armed and well provided with noble steeds, he is then the mightiest of chariot heroes.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रत्येक माणसाचा स्वत:चा अनुभव असतो की, त्याला प्रत्येक दिवशी कितीतरी संघर्ष करावा लागतो. जीविकेसाठी, प्रतिष्ठा व मर्यादेसाठी, सन्मानित व प्रतिष्ठित होण्यासाठी व व्यापारात प्रसिद्ध होण्यासाठी माणसाला सदैव संघर्ष करावा लागतो. या सर्वात अधिक त्यावेळी भयंकर संघर्ष करावा लागतो. जेव्हा एखाद्या प्रिय अभीष्ट वस्तूच्या लाभासाठी चिंता निर्माण होते. कित्येक युवक व युवतींनी अभीष्ट प्राप्त न झाल्यामुळे आत्महत्या केलेली आहे; पण ज्ञानी आत्मा युद्ध करतो तेव्हाही तो श्रेष्ठ व सुशोभित असतो. ॥७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    आजिकृत् । सांसारिककार्यैः सह युद्धकृत् । इन्द्रः=आत्मा । स्वश्वयुः=शोभनमश्वमिच्छन् । यद्=यदा । आजिम्= समरमुपयाति । तदा रथीनां मध्ये । स एव । रथितमः=अतिशयेन रथीभवति ॥७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (आजिकृत्) सांसारिक प्रत्येक कार्य्य के साथ युद्धकृत् (इन्द्रः) वह बलिष्ठ ईश्वर-भक्तपरायण आत्मा (स्वश्वयुः) मनोरूप अश्व को चाहता हुआ (यद्) जब (आजिम्) संग्राम में (उपयाति) पहुँचता है, तब (रथीनाम्) सब महारथों में (रथीतमः) श्रेष्ठ रथी होता है ॥७ ॥

    भावार्थ

    प्रत्येक मनुष्य को निज अनुभव है कि उसको प्रतिदिन कितना युद्ध करना पड़ता है । जीविका के लिये प्रतिष्ठा और मर्य्यादा के लिये समाज में प्रतिष्ठित होने के लिये एवं व्यापारादि में ख्याति लाभ के लिये मनुष्य को सदा युद्ध करना ही पड़ता है । इन सबसे भी अधिक उस समय घोर समर रचना पड़ता है, जब किसी प्रिय अभीष्ट वस्तु के लाभ की चिन्ता उपस्थित होती है । कितने युवक अभी युवती न पाकर आत्म-हत्या की गोद में जा बैठे, परन्तु जब ज्ञानी आत्मा युद्ध में भी जाता है, तब वह सुशोभित ही होता है ॥७ ॥

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    विषय

    महारथी अग्नि, उसके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) शत्रु नाशकारी सेनापति ( यत् ) जब या जो ( आजिं याति ) युद्ध के लिये प्रयाण करता है वह ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता पुरुष ( आजिकृत् ) युद्ध करने में कुशल, ( सु-अश्वयुः ) उत्तम अश्व सैन्यों का स्वामी और ( रथीनाम् रथीतमः ) रथवान् योद्धाओं के बीच सर्वश्रेष्ठ रथी, महारथी हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    रथीनां रथीतमः

    पदार्थ

    [१] (आजिकृत्) = संग्राम को करनेवाला (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (स्वश्वयुः) = उत्तम इन्द्रियाश्वों की कामनावाला होता हुआ (यद्) = जब (आजिम् उपयाति) = संग्राम को प्राप्त होता है, तो वह (रथीनां रथीतमः) = रथियों में श्रेष्ठ रथी होता है। [२] प्रभु का सम्पर्क इसे खूब शक्ति सम्पन्न बना देता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का उपासक कभी संग्राम में पराजित नहीं होता। यह उत्तम रथी बनता है।

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