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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 8
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    वि षु विश्वा॑ अभि॒युजो॒ वज्रि॒न्विष्व॒ग्यथा॑ वृह । भवा॑ नः सु॒श्रव॑स्तमः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । सु । विश्वाः॑ । अ॒भि॒ऽयुजः॑ । वज्रि॑न् । विष्व॑क् । यथा॑ । वृ॒ह॒ । भव॑ । नः॒ । सु॒श्रवः॑ऽतमः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि षु विश्वा अभियुजो वज्रिन्विष्वग्यथा वृह । भवा नः सुश्रवस्तमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । सु । विश्वाः । अभिऽयुजः । वज्रिन् । विष्वक् । यथा । वृह । भव । नः । सुश्रवःऽतमः ॥ ८.४५.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 8
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 43; मन्त्र » 3
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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O wielder of the thunderbolt, fight out the enemies the way you uproot them so that you become the most renowned among us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रत्येक दिवशी आमच्या अंत:करणात नाना प्रकारच्या दुष्ट वासना उत्पन्न होतात. त्याच आमच्या महाशत्रू आहेत. त्यांना ज्ञानी सुशील आत्मा आपल्याजवळ येऊ देत नाही. असा आत्माच जगात यशस्वी होतो. त्यासाठी हे माणसांनो! आपल्या आत्म्यात कुवासना उत्पन्न होऊ देऊ नका.॥८॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    उपासक आत्मानं बोधयति ।

    पदार्थः

    हे वज्रिन् ! स्वशीलरक्षायै । महादण्डधारिन् ! मम । विश्वाः=सर्वाः । अभियुजः=अभियोक्त्रीः प्रजाः । यथा विष्वग्=छिन्नभिन्ना भवेयुः । तथा सु=सुष्ठु । वि वृह=विनाशय । तथा नोऽस्माकम् । सुश्रवस्तमः= सुयशोधारितमो भव ॥८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    उपासक अपने आत्मा को समझाता है ।

    पदार्थ

    (वज्रिन्) हे स्वशीलरक्षा के लिये महादण्डधारिन् ! आप मेरी (विश्वाः) समस्त (अभियुजः) उपद्रवकारिणी प्रजाओं को (सु) अच्छे प्रकार (वि+वृह) निर्मूल कर नष्ट कर देवें, जिससे वे (यथा) जैसे (विष्वग्) छिन्न-भिन्न होकर नाना मार्गावलम्बी हों जाएँ और आप हे अन्तरात्मन् ! (नः) हमारे (सुश्रवस्तमः) शोभन यशोधारी हूजिये ॥८ ॥

    भावार्थ

    प्रतिदिन हमारे अन्तःकरण में नाना दुष्ट वासनाएँ उत्पन्न होती रहती हैं । ये ही हमारे महाशत्रु हैं, उनको ज्ञानी सुशील आत्मा अपने निकट नहीं आने देता । वही आत्मा संसार में यशोधारी होता है, अतः हे मनुष्यों ! अपने आत्मा में बुरी वासनाएँ उत्पन्न होने मत दो ॥८ ॥

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    विषय

    महारथी अग्नि, उसके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( वज्रिन ) बलवीर्य से सम्पन्न, शस्त्रबल के स्वामिन् ! तू ( विश्वा अभि-युजः ) समस्त आक्रमणकुशल सेनाओं को ( विश्वक्यथा ) जिस प्रकार हो उसी प्रकार सब ओर (वि सु वृह) विविध प्रकार से और अच्छी प्रकार उद्यमन कर, उनको सुसज्जित खड़ा रख। और तू ( नः ) हमारे बीच ( सु-श्रवस्तमः भव ) उत्तम यशस्वी, ज्ञानी और धनैश्वर्यादिवान हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    सुश्रवस्तमः

    पदार्थ

    [१] हे (वज्रिन्) = वज्रहस्त प्रभो ! आप (विश्वाः) = सब (अभियुजः) = हमारे पर आक्रमण करनेवाली सेनाओं को (यथा विष्वक्) = जिस प्रकार सब ओर भाग जाएँ। इस प्रकार (वि सु वृह) = सम्यक् उच्छिन्न कर दीजिए। [२] हमारे सब शत्रुओं को समाप्त करके (नः) = हमें (सुश्रवस्तमः) = उत्तम यशस्वी बनानेवाले (भव) = होइए। शत्रुओं को जीतकर हमारा जीवन यश से (अन्वित) = हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के अनुग्रह से हम सब आक्रमण करनेवाली शत्रु सेनाओं को पराजित कर पाएँ और इस प्रकार जीवन में यशस्वी हों।

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