ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 39
आ त॑ ए॒ता व॑चो॒युजा॒ हरी॑ गृभ्णे सु॒मद्र॑था । यदी॑न ब्र॒ह्मभ्य॒ इद्दद॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । ए॒ता । व॒चः॒ऽयुजा॑ । हरी॒ इति॑ । गृ॒भ्णे॒ । स॒मत्ऽर॑था । यत् । ई॒म् । ब्र॒ह्मऽभ्यः॑ । इत् । ददः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त एता वचोयुजा हरी गृभ्णे सुमद्रथा । यदीन ब्रह्मभ्य इद्दद: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ते । एता । वचःऽयुजा । हरी इति । गृभ्णे । समत्ऽरथा । यत् । ईम् । ब्रह्मऽभ्यः । इत् । ददः ॥ ८.४५.३९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 39
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 49; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 49; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
I receive the word-controlled motive powers and steers of the chariot which fly you on high on liquid fuel, the ones you have given to the scholarly sages.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रत्येक माणसाने यथाशक्ती या जगाच्या रचनेला व नियमांना जाणावे. विद्वानांनी याकडे अधिक लक्ष देणे आवश्यक आहे. ॥३९॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! वचोयुजा=वचनयुक्तौ । सुमद्रथा=कल्याणरथौ । ते तव । एता=एतौ=प्रत्यक्षौ । हरी=परस्परहरणशीलौ स्थावरजङ्गमात्मकौ संसारौ । अहमुपासकः । आगृभ्णे=आगृह्णामि=स्वीकरोमि । यद्=यस्मात् त्वम् । ब्रह्मभ्यः=तत्त्वविद्भ्य इत् । ददः=तत्त्वज्ञाने शक्तिम् । ददासि ॥३९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे इन्द्र ! (वचोयुजा) निज-२ वाणियों और भाषाओं से युक्त (समुद्रथौ) अनादि अचलकालरूप रथ में नियुक्त (ते) तेरे (एते) ये प्रत्यक्ष (हरी) परस्पर हरणशील स्थावर और जङ्गमरूप द्विविध संसार के (आ+गृभ्णे) तत्त्वों और नियमों को तेरी कृपा से जानता हूँ, (यद्+ईम्) जिस कारण तू (ब्रह्मभ्यः+इत्) ब्रह्मविद् पुरुषों को तू (ददः) तत्त्व जानने की शक्ति देता है ॥३९ ॥
भावार्थ
प्रत्येक मनुष्य को उचित है कि यथासाध्य इस संसार के नियमों और रचना प्रभृति को जाने । विद्वानों को इस ओर अधिक ध्यान देना उचित है ॥३९ ॥
विषय
श्रेष्ठ राजा, उससे प्रजा की न्यायानुकूल नाना अभिलाषाएं।
भावार्थ
( यत् ) जो तू ( ब्रह्मभ्यः ) विद्वान् वेदज्ञ पुरुषों के हितार्थ ( ई ददः ) यह सब देता है इसलिये ( ते ) तेरे ( एता ) इन ( वचोयुजा ) वाणीमात्र से लगने वाले ( सुमद्-रथा ) उत्तम बल युक्त वाले, ( हरी ) अश्वों के समान उत्तम देहवान् स्त्री पुरुषों को (आगृभ्णे) तेरे अधीन करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
वचोयुजा हरी
पदार्थ
[१] हे प्रभो! (ते) = आपके (एता) = इन (सुमद्रथा) = शोभन शरीररथवाले इस शोभन रथ में जुतने-वाले (वचोयुजा) = वेदवचनों के अनुसार कार्यों में लानेवाले व रथ में युक्त होनेवाले (हरी) = कर्मेन्द्रिय व ज्ञानेन्द्रियरूप अश्वों को (आगृभ्णे) = ग्रहण करता हूँ। एक सारथि जैसे लगाम से घोड़ों को वशीभूत करता है, उसी प्रकार मैं इन इन्द्रियाश्वों को वश में करता हूँ। [२] (यत्) = क्योंकि (ईम्) = निश्चय से (ब्रह्मभ्यः) = ज्ञानप्राप्ति के लिए [ज्ञान की वाणियों के लिए] व महान् कर्मों के लिए (इत्) = ही (दद:) = आप इन इन्द्रियाश्वों को देते हैं। इन इन्द्रियों को वश में करके ही मैं ज्ञान व महान् कर्मों का सम्पादन कर सकूँगा।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु से प्रदत्त इन इन्द्रियाश्वों को वश में करके ही ज्ञान व महान् कर्मों का सम्पादन कर सकते हैं।
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