ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 5
प्रति॑ त्वा शव॒सी व॑दद्गि॒रावप्सो॒ न यो॑धिषत् । यस्ते॑ शत्रु॒त्वमा॑च॒के ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । त्वा॒ । श॒व॒सी । व॒द॒त् । घि॒रौ । अप्सः॑ । न । यो॒धि॒ष॒त् । यः । ते॒ । श॒त्रु॒ऽत्वम् । आ॒ऽच॒के ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति त्वा शवसी वदद्गिरावप्सो न योधिषत् । यस्ते शत्रुत्वमाचके ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति । त्वा । शवसी । वदत् । घिरौ । अप्सः । न । योधिषत् । यः । ते । शत्रुऽत्वम् । आऽचके ॥ ८.४५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 42; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 42; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord of power and excellence, to you then the mighty mother, divine intelligence, would say: Whoever would take a hostile attitude toward you would fight against you like a seductive sorceress on the magic mountain.
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा आत्म्यामध्ये ईश्वर उपासनेने थोडेबहुत बल येऊ लागते. तो शत्रुरहित व निश्चिंत होऊ लागतो. त्यावेळी बुद्धी म्हणते हे आत्मा! तू निश्चिंत होऊ नकोस. अद्याप तुझे शत्रू आहेत. ते तुझ्याबरोबर युद्ध करतील. ईश्वराला पुन्हा पुन्हा शरण जा. त्याची उपासना, स्तुती, प्रार्थना सोडू नकोस. ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! त्वा=त्वां प्रति । शवसी=बलवती बुद्धिरूपा माता । प्रतिवदत्=प्रतिवदति । यस्ते शत्रुत्वम् । आचके=इच्छति । सः । गिरौ=पर्वते । अप्सो न=दर्शनीयो राजा इव योधिषत्=युध्यति ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
स्वयं आत्मा अपने से कहता है कि हे इन्द्र ! (त्वा) तुझको (शवसी) बलवती बुद्धिरूपा माता (प्रति+वदत्) कहेगी कि (यः+ते) जो तेरे साथ (शत्रुत्वम्) शत्रुता की (आचके) आकाङ्क्षा करता है, वह (गिरौ) पर्वत के ऊपर (अप्सः+न) दर्शनीय राजा के समान (योधिषत्) युद्ध करेगा ॥५ ॥
भावार्थ
जब आत्मा में ईश्वर की उपासना से कुछ-कुछ बल आने लगता है, तब वह अपने को शत्रुरहित और निश्चिन्त समझने लगता है । उस समय बुद्धि कहती है कि हे आत्मन् ! आप निश्चिन्त न होवें, अभी आपके शत्रु हैं, वे आपसे युद्ध करेंगे । ईश्वर की शरण में पुनः-पुनः जाओ । उसकी उपासना स्तुति प्रार्थना मत छोड़ो ॥५ ॥
विषय
बलवान् यशस्वी नेता अग्नि।
भावार्थ
हे ऐश्वर्यवन् ! ( त्वा प्रति ) तेरे प्रति (शवसी) बलवती सेना ( अवदत् ) कहे कि ( यः ) जो ( ते शत्रुत्वम् आचके ) तेरी शत्रुता चाहता है उससे तू ( गिरौ ) मेघ में विद्यमान ( अप्सः न ) रूपयुक्त तेजस्वी विद्युत् के समान ( योधिषत्) प्रहार कर। इति द्वाचत्वारिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
शवसी [माता]
पदार्थ
[१] हे इन्द्र! (शवसी) = बलवती माता, गतमन्त्र से वर्णित प्रश्न को सुनकर (त्वा प्रतिवदत्) = तेरे प्रति कहती है (यः) = जो (ते) = तेरे (शत्रुत्वम् आचके) शत्रुत्व की कामना करता है, उसके साथ तू (गिरौ) = पर्वत पर (अप्सः न) = [अप्सु सरति] जल संचारी विद्युत् के समान (योधिषत्) = युद्ध कर । उस शत्रु पर ऐसे आक्रमण कर जैसे पर्वत पर विद्युत् का आक्रमण होता है। बिजली गिरती है और पत्थर छिन्न-भिन्न हो जाता है। इसी प्रकार तू शत्रुओं पर आक्रमण कर और शत्रु छिन्न-भिन्न हो जाएँ।
भावार्थ
भावार्थ:- वीर माता सन्तान को उत्साहित करती हुई कहती है कि शत्रुओं पर तेरा आक्रमण इस प्रकार हो जैसे पर्वत पर विद्युत् पतन ।
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