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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 18
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यच्छु॑श्रू॒या इ॒मं हवं॑ दु॒र्मर्षं॑ चक्रिया उ॒त । भवे॑रा॒पिर्नो॒ अन्त॑मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । शु॒श्रू॒याः । इ॒मम् । हव॑म् । दुः॒ऽमर्ष॑म् । च॒क्रि॒याः॒ । उ॒त । भवेः॑ । आ॒पिः । नः॒ । अन्त॑मः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यच्छुश्रूया इमं हवं दुर्मर्षं चक्रिया उत । भवेरापिर्नो अन्तमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । शुश्रूयाः । इमम् । हवम् । दुःऽमर्षम् । चक्रियाः । उत । भवेः । आपिः । नः । अन्तमः ॥ ८.४५.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 18
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 45; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    As you hear this call of ours, take it as unforgettable and be our closest and ultimate friend and brother.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ही स्वाभाविक प्रार्थना आहे. ईश्वराला सर्वजण आपला बंधू बनवू इच्छितात, परंतु तो कुणाचा सखा बनू इच्छितो? याचा पुन्हा पुन्हा विचार केला पाहिजे. ॥१८॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र । यद्=यदि त्वम् । अस्माकमेकवारमपि । इमं हवम्=स्तोत्रम् । शुश्रूयाः=शृणुयाश्चेत् तर्हि । तं हवम् । दुर्मर्षम्=अविस्मरणीयम् । चक्रियाः=कुर्व्याः । उत=अपि च । नोऽस्माकम् । अन्तमः=अन्तिकतमः अतिशयनिकटवर्ती । आपिर्बन्धुः सखा । भवेः=भव ॥१८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे ईश्वर ! (यद्) यदि तू हम लोगों का (इमम्+हवम्) इस आह्वान को (शुश्रूयाः) एकवार भी सुन चुका है, तो उसको (दुर्मर्षम्) अविस्मरणीय (चक्रियाः) बनाओ (उत) और (नः) सकल जनसमुदाय का तू (अन्तमः) अतिशय समीपवर्ती (आपिः+भवेः) बन्धु और मित्र हो ॥१८ ॥

    भावार्थ

    यह स्वाभाविक प्रार्थना है । ईश्वर को सब ही अपना बन्धु बनाना चाहते हैं, परन्तु वह किसका सखा बनता है, यह पुनः-पुनः विचारना चाहिये ॥१८ ॥

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    विषय

    उस से नाना प्रार्थनाएं, शरणयाचना।

    भावार्थ

    ( यत् ) जब ( उत ) भी ( इमं ) इस ( हवं शुश्रूया ) आह्वान, ललकार को श्रवण करले तो तू ( दुर्मर्षं ) दुःसह्य ( चक्रिया: ) पराक्रम कर और ( नः ) हमारा ( अन्तमः आपिः भवेः ) निकटतम बन्धु हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    दुर्मर्ष बल

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! आप (यद्) = जब (इमं हवं) = हमारी पुकार को (शुश्रूयाः) = सुनते हैं, (उत) = और (दुर्मर्षम्) = शत्रुओं से न सहने योग्य बल को हमारे लिए (चक्रिया:) = करते हैं, तो (नः) = हमारे (अन्तमः) = अन्तिकतम (आपिः) = मित्र (भवेः) = होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे अन्तिकतम मित्र हैं। वे हमें उस बल को प्राप्त कराते हैं, जो शत्रुओं से सहने योग्य नहीं होता ।

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