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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 33
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    तवेदु॒ ताः सु॑की॒र्तयोऽस॑न्नु॒त प्रश॑स्तयः । यदि॑न्द्र मृ॒ळया॑सि नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तव॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । ताः । सु॒ऽकी॒र्तयः॑ । अस॑न् । उ॒त । प्रऽश॑स्तयः । यत् । इ॒न्द्र॒ । मृ॒ळया॑सि । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तवेदु ताः सुकीर्तयोऽसन्नुत प्रशस्तयः । यदिन्द्र मृळयासि नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तव । इत् । ऊँ इति । ताः । सुऽकीर्तयः । असन् । उत । प्रऽशस्तयः । यत् । इन्द्र । मृळयासि । नः ॥ ८.४५.३३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 33
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 48; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, if you were kind and gracious to us and we were happy, all the graces would be your renown, they would be reflections of your glory.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सुस्पष्ट ऋचेलाही भाष्यकार व टीकाकार कठीण बनवितात. या ऋचेचा अर्थ स्पष्ट आहे. इन्द्राजवळ निवेदन केले जाते की, तू आम्हाला सुखी करतोस ती तुझी कृपा सुकीर्ती व प्रशंसा आहे. ॥३३॥

    टिप्पणी

    विशेष - याचा द्वितीय अर्थ या प्रकारेही होऊ शकतो की, (यद्) जर तू (न: मृळयासि) आम्हाला सुखी केलेस तर (ता:) ती (तव इत् ) तुझीच (सुकीर्तय: असन् ) सुकीर्ती होईल. ती तुझीच (प्रशस्तय:) प्रशंसा होईल.

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! यत्त्वम् । नोऽस्मान् । मृळयासि=सुखयसि । ताः । तवेद्=तवैव । सुकीर्त्तयः । असन्=सन्ति । उत तवैव प्रशस्तयः=प्रशंसाः ॥३३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! (यत्) जो आप कृपा कर (नः) हम उपासक जनों को (मृळयासि) सब प्रकार से सुखी रखते हैं, (ताः) वे (तव+इत्+उ) आपकी ही (सुकीर्त्तयः) सुकीर्तियाँ (असन्) हैं (उत) और आपकी ही (प्रशस्तयः) प्रशंसाएँ हैं ॥३३ ॥

    भावार्थ

    विस्पष्ट ऋचा को भी भाष्यकार और टीकाकार कठिन बना देते हैं । इस ऋचा का अर्थ विस्पष्ट है । इन्द्र के निकट निवेदन किया जाता है कि आप जो हमको सुखी करते हैं, वह आपकी कृपा सुकीर्ति और प्रशंसा है ॥३३ ॥

    टिप्पणी

    इसका द्वितीय अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है कि (यद्) यदि आप (नः+मृळयासि) हमको सुखी बनावें, तो (ताः) वे (तव+इत्) आपकी ही (सुकीर्तयः+असन्) सुकीर्तियाँ होंगी या होवें, आपकी ही (प्रशस्तयः) प्रशंसाएँ होंगी ॥३३ ॥

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    विषय

    श्रेष्ठ राजा, उससे प्रजा की न्यायानुकूल नाना अभिलाषाएं।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( यत् ) जो तू ( नः मृडयासि ) हमें सुखी करता है ( ताः सुकीर्तयः ) वे नाना उत्तम कीर्त्तियां और ( उत प्रशस्तयः ) उत्तम प्रशंसाएं भी ( तत्र इत् ) तेरी ही हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    सुकीर्तयः प्रशस्तयः [प्रभु की]

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (ताः) = वे (सुकीर्तयः) = उत्तम कीतयाँ (उ) = निश्चय से (तव इत् असन्) = आपकी ही हैं, (यत्) = कि आप (नः) = हमें (मृडयासि) = सुखी करते हैं । [२] (उतः) = और हे प्रभो! [ता:] वे (प्रशस्तयः) = प्रशस्तियाँ भी आपकी ही हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- वस्तुत: प्रभु ही हमारे जीवन को सुखी बनाते हैं। हमें प्रभु का ही कीर्तन व शंसन करना योग्य है।

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