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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 26
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अपि॑बत्क॒द्रुव॑: सु॒तमिन्द्र॑: स॒हस्र॑बाह्वे । अत्रा॑देदिष्ट॒ पौंस्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अपि॑बत् । क॒द्रुवः॑ । सु॒तम् । इन्द्रः॑ । स॒हस्र॑ऽबाह्वे । अत्र॑ । अ॒दे॒दि॒ष्ट॒ । पौंस्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपिबत्कद्रुव: सुतमिन्द्र: सहस्रबाह्वे । अत्रादेदिष्ट पौंस्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपिबत् । कद्रुवः । सुतम् । इन्द्रः । सहस्रऽबाह्वे । अत्र । अदेदिष्ट । पौंस्यम् ॥ ८.४५.२६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 26
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 47; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    In the thousand armed dynamic battles of the elements in evolution, Indra, as the sun, drinks the soma of the earth and therein shines the potent majesty of the lord.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा ईश्वर अंतिम वेळी या अनंत सृष्टीचा प्रलय करतो, तेव्हा अल्पज्ञ जीवांना त्याचे आश्चर्य वाटते. त्यामुळे जीवामध्ये त्याच्या विषयी श्रद्धा व भक्ती निर्माण होते. ॥२६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    इन्द्रः संहर्त्तास्तीति दर्शयति ।

    पदार्थः

    इन्द्रः=सर्वशक्तिमान् देवः । कद्रुवः=कद्रूः प्रकृतिः तस्याः । सुतम्=निष्पादितमिमं संसारम् । अन्ते । अपिबत्=पिबति=संहरति । ततोऽत्र जीवमध्ये । सहस्रबाह्वे=सहस्रबाहोरिन्द्रस्य । पौंस्यम्=वीर्य्यम् । अदेदिष्ट=प्रदीप्यते ॥२६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इन्द्र संसार का संहार भी करता है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्रः) सर्वशक्तिमान् देव ! (कद्रुवः) प्रकृति देवी के इस (सुतम्) विरचित संसार को अन्त में (अपिबत्) पी जाता है । तब (अत्र) यहाँ (सहस्रबाह्वे) सहस्र बाहु=अनन्तकर्मा अनन्त शक्तिधारी उस ईश्वर को (पौंस्यम्) परमबल (अदेदिष्ट) प्रदीप्त होता है ॥२६ ॥

    भावार्थ

    जब ईश्वर अन्त में इस अनन्त सृष्टि को समेट लेता है, तब अल्पज्ञ जीवों को यह देख आश्चर्य प्रतीत होता है । तब ही उसमें जीव श्रद्धा और भक्ति करता है ॥२६ ॥

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    विषय

    उत्तम नेताओं के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्, दुष्टों का हन्ता वा सत्य ज्ञान का द्रष्टा पुरुष ( कद्रुवः ) उपदेष्टा विद्वान् के ( सुतम् ) प्रकट किये ज्ञान को भूमि से उत्पन्न ऐश्वर्य, अन्नादि के समान ( सहस्र- बाह्ले ) सहस्रों वा बलशाली बाहुबल की वृद्धि के लिये ( अपिबत् ) पान करे। ( अ ) इस प्रकार उसका इस लोक में (पौंस्यं अदेदिष्ट ) पौरुष चमकता है।

    टिप्पणी

    कद्रः - इयं पृथिवी ( श० ३। ६। २। २॥ )। कवते उपदिशति असौ कद्रूः, उपदेष्टा ब्रह्मविद्या वा। उणादिपाठे जत्र्वादिषु निपातितः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    कद्रुवः सुतम् अपिबत्

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (कद्रुवः) = [कवते] उस ज्ञानोपदेष्टा प्रभु के (सुतम्) = उत्पादित इस सोम को (अपिबत्) = पीता है-शरीर में ही व्याप्त करता है और (सहस्त्रबाह्ने) = सहस्रों प्रयत्नों को कर पाता है। यह सुरक्षित सोम उसे शक्तिशाली बनाता है और इसे प्रयत्न करने में समर्थ करता है। [२] (अत्र) = यहाँ, अर्थात् सोम का रक्षण होने पर (पौंस्यम् अदेदिष्ट) = इसका पौरुष चमक उठता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - इन्द्र बनकर हम सोम का रक्षण करें और शक्तिशाली व प्रयत्नशील बनें। पौरुष से दीप्त हों।

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