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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 28
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त॒रणिं॑ वो॒ जना॑नां त्र॒दं वाज॑स्य॒ गोम॑तः । स॒मा॒नमु॒ प्र शं॑सिषम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त॒रणि॑म् । वः॒ । जना॑नाम् । त्र॒दम् । वाज॑स्य । गोऽम॑तः । स॒मा॒नम् । ऊँ॒ इति॑ । प्र । शं॒सि॒ष॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तरणिं वो जनानां त्रदं वाजस्य गोमतः । समानमु प्र शंसिषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तरणिम् । वः । जनानाम् । त्रदम् । वाजस्य । गोऽमतः । समानम् । ऊँ इति । प्र । शंसिषम् ॥ ८.४५.२८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 28
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 47; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I constantly praise the lord saviour of you, people, and the protector of your earthly wealth, power, progress and freedom.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो ईश्वर सर्वांचा स्वामी आहे व जो समान रूपाने सर्वत्र विद्यमान आहे व हितकारी आहे त्याची मी स्तुती करतो, तशीच तुम्हीही करा. ॥२८॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! वः=युष्माकम् । जनानाम् । तरणिम्= दुःखेभ्यस्तारकम् । पुनः । गोमतः=गोमेषप्रभृतिपशुसंयुक्तस्य । वाजस्य=धनस्य । त्रदम्=त्रातारं दातारञ्च । पुनः । सर्वत्र समानमु=समानमेवेशम् । अहम् । प्रशंसिषम्=प्रशंसामि= स्तौमि ॥२८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! (वः) तुम (जनानाम्) मनुष्यों को (तरणिम्) दुःखों से पार लगानेवाले और (गोमतः) गौ, मेष आदि पशुओं से संयुक्त (वाजस्य) धन के (त्रदम्) रक्षक और दायक और (समानम्+उ) सर्वत्र समान ही उस देव की मैं (प्रशंसिषम्) प्रशंसा करता हूँ ॥२८ ॥

    भावार्थ

    जो ईश्वर सबका स्वामी है और जो समानरूप से सर्वत्र विद्यमान और हितकारी है, उसी की स्तुति मैं करता हूँ और आप लोग भी करें ॥२८ ॥

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    विषय

    उत्तम नेताओं के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    मैं ( जनानां वः ) आप लोगों के बीच ( तरणिं ) संकटों से पार उतारने वाले ( त्रदं ) शत्रु के नाशक और ( गोमतः वाजस्य ) भूमि से युक्त ऐश्वर्य के दाता की भी (समानम् उ प्रशंसिषम् ) समान रूप से, आदरपूर्वक प्रशंसा करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    'तरणि-त्रद-समान' प्रभु का शंसन

    पदार्थ

    [१] मैं प्रभु का (प्रशंसिषम्) = शंसन करता हूँ। उस प्रभु का, जो (वः) = तुम सब (जनानां) = लोगों के (तरणिं) = तारक हैं-विषय-वासनाओं व कष्टों से पार ले जानेवाले हैं। (त्रदं) = शत्रुओं का नाश करनेवाले हैं शत्रुनाश के द्वारा ही वे हमें कष्टों से पार ले जाते हैं । [२] मैं उस प्रभु का शंसन करता हूँ जो (गोमतः वाजस्य) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले बल को (सम् आनं) = [ अन् प्राणने] सम्यक् प्राणित करनेवाले हैं। प्रभु हमारे में प्राणशक्ति का संचार करते हैं- एक-एक इन्द्रिय को सबल बनाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमें कष्टों से तरानेवाले हैं, हमारे शत्रुओं का विनाश करनेवाले हैं और हमारी इन्द्रयों की शक्ति को प्राणित करनेवाले हैं।

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