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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 45/ मन्त्र 20
    ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ त्वा॑ र॒म्भं न जिव्र॑यो रर॒भ्मा श॑वसस्पते । उ॒श्मसि॑ त्वा स॒धस्थ॒ आ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । त्वा॒ । र॒म्भम् । न । जिव्र॑यः । र॒र॒भ्म । श॒व॒सः॒ । प॒ते॒ । उ॒श्मसि॑ । त्वा॒ । स॒धऽस्थे॑ । आ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वा रम्भं न जिव्रयो ररभ्मा शवसस्पते । उश्मसि त्वा सधस्थ आ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । त्वा । रम्भम् । न । जिव्रयः । ररभ्म । शवसः । पते । उश्मसि । त्वा । सधऽस्थे । आ ॥ ८.४५.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 45; मन्त्र » 20
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 45; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord commander of power and prosperity, as weaker folks take to the staff for support, so do we depend on you for succour and sustenance and invoke your presence in our hall of yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ईश्वराला आपले आश्रयस्थान बनवा. त्याच्यावर विश्वास ठेवा. प्रत्येक शुभकर्मात त्याची उपासना करा. ॥२०॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे शवसस्पते ! हे बलस्याधिपते इन्द्र ! रम्भं न जिव्रयः=यथा जिव्रयो जीर्णा वृद्धा मनुष्या रम्भम्=दण्डमालम्बन्ते । तथैव वयमपि । त्वा=त्वामेव । आ ररम्भ=आरभामहे । अपि च त्वा=त्वाम् । सधस्थे=यज्ञस्थाने उश्मसि=कामयामहे ॥२० ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (शवसः+पते) हे बलाधिदेव इन्द्र ! (न) जैसे (जिव्रयः) जीर्ण वृद्ध पुरुष (रम्भम्) दण्ड को अपना अवलम्बन बनाते हैं, तद्वत् हम (त्वाम्) आपको (आ+ररम्भ) अपना अवलम्बन और आश्रय बनाते हैं (आ) और सदा (त्वाम्) आपको (सधस्थे) यज्ञस्थान में (उश्मसि) चाहते हैं ॥२० ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! ईश्वर को अपना आश्रय बनाओ । उस पर विश्वास करो । प्रत्येक शुभकर्म में उसकी उपासना करो ॥२० ॥

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    विषय

    उस से नाना प्रार्थनाएं, शरणयाचना।

    भावार्थ

    हे ( शवसः पते ) बल और ज्ञान के पालक ! ( जिव्रयः रम्भं न ) बूढे जिस प्रकार दण्ड का आश्रय लेते हैं उसी प्रकार हम ( त्वा आ ररम्म ) तेरा आश्रय लेवें। ( सधस्थे ) सब स्थानों में हम ( त्वा आ उष्मसि ) तेरी ही सदा कामना करते हैं। इति पञ्चचत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रिशोकः काण्व ऋषिः॥ १ इन्द्राग्नी। २—४२ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—॥ १, ३—६, ८, ९, १२, १३, १५—२१, २३—२५, ३१, ३६, ३७, ३९—४२ गायत्री। २, १०, ११, १४, २२, २८—३०, ३३—३५ निचृद् गायत्री। २६, २७, ३२, ३८ विराड् गायत्री। ७ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    'सबका सहारा' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (शवसस्पते) = बल के स्वामिन्! (जिव्रयः रम्भं न) = वृद्ध जैसे एक आश्रययष्टि की सहायता लेता है उसी प्रकार हम (त्वा आ ररभ्मा) = आपका आश्रय लेनेवाले हों। आप ही तो निराधार होते हुए सर्वाधार हैं। [२] हम (सधस्थे) = मिलकर बैठने के यज्ञवेदिरूप स्थानों में अथवा आपके साथ मिलकर बैठने के स्थान हृदयदेश में (त्वा आ उश्मसि) = आपको ही चाहते हैं। आपकी प्राप्ति की कामनावाले होते हैं। आप ही तो वह स्थान हैं जहाँ सब कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही सर्वाधार हैं। प्रभु का ही हृदयदेश में ध्यान करते हुए कामना करें। प्रभु सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं।

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