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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 22
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आ॒तिष्ठ॑न्तं॒ परि॒ विश्वे॑ऽअभूष॒ञ्छ्रियो॒ वसा॑नश्चरति॒ स्वरो॑चिः।म॒हत्तद् वृष्णो॒ऽअसु॑रस्य॒ नामा वि॒श्वरू॑पोऽअ॒मृता॑नि तस्थौ॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒तिष्ठ॑न्त॒मित्या॒ऽतिष्ठ॑न्तम्। परि॑। विश्वे॑। अ॒भू॒ष॒न्। श्रियः॑। वसा॑नः। च॒र॒ति॒। स्वरो॑चि॒रिति॒ स्वऽरो॑चिः ॥ म॒हत्। तत्। वृष्णः॑। असु॑रस्य। नाम॑। आ। वि॒श्वऽरू॑प॒ इति॒ वि॒श्वऽरू॑पः। अ॒मृता॑नि। त॒स्थौ॒ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आतिष्ठन्तम्परि विश्वेऽअभूषञ्छ्रियो वसानश्चरति स्वरोचिः । महत्तद्वृष्णोऽअसुरस्य नामा विश्वरूपोऽअमृतानि तस्थौ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आतिष्ठन्तमित्याऽतिष्ठन्तम्। परि। विश्वे। अभूषन्। श्रियः। वसानः। चरति। स्वरोचिरिति स्वऽरोचिः॥ महत्। तत्। वृष्णः। असुरस्य। नाम। आ। विश्वऽरूप इति विश्वऽरूपः। अमृतानि। तस्थौ॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 22
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ–হে বিদ্বান্গণ! (বিশ্বে) সকলে আপনার ন্যায় (শ্রিয়ঃ) ধন বা শোভাকে (বসানঃ) ধারণ করিয়া (স্বরোচিঃ) স্বয়মেব দীপ্তযুক্ত (বিশ্বরূপঃ) সকল পদার্থে সেই সেই রূপে ব্যাপ্ত অগ্নি (চরতি) বিচরণ করে এবং (অমৃতানি) নাশরহিত বস্তুসকলে (আ, তস্থৌ) স্থিত সেইরূপ এই (অতিষ্ঠন্তম্) উত্তম প্রকার স্থির অগ্নিকে (পরি, অভূষন্) সকল দিক দিয়া শোভিত করুন । যে (বৃষ্ণঃ) বর্ষাকারী (অসুরস্য) হিংসক এই বিদ্যুৎ রূপ অগ্নির (মহৎ) বৃহৎ (তৎ) সেই পরোক্ষ (নাম) নাম, তাহার সকল কার্য্যকে শোভিত করুন ॥ ২২ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে কারণে এই বিদ্যুৎ রূপ অগ্নি সকল পদার্থে স্থিত হইয়াও কাউকে প্রকাশিত করে না, এইজন্য ইহার অসুর সংজ্ঞা । যাহারা এই বিদ্যুৎ বিদ্যাকে জানে তাহারা সকল দিক দিয়া সুভূষিত হয় ॥ ২২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - আ॒তিষ্ঠ॑ন্তং॒ পরি॒ বিশ্বে॑ऽঅভূষ॒িএ্×ছ্রয়ো॒ বসা॑নশ্চরতি॒ স্বরো॑চিঃ ।
    ম॒হত্তদ্ বৃষ্ণো॒ऽঅসু॑রস্য॒ নামা বি॒শ্বরূ॑পোऽঅ॒মৃতা॑নি তস্থৌ ॥ ২২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - আতিষ্ঠন্তমিত্যস্য বিশ্বামিত্র ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । ভুরিক্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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