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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 68
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - आदित्या देवताः छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    य॒ज्ञो दे॒वानां॒ प्रत्ये॑ति सु॒म्नमादि॑त्यासो॒ भव॑ता मृड॒यन्तः॑।आ वो॒ऽर्वाची॑ सुम॒तिर्व॑वृत्याद॒ꣳहोश्चि॒द्या व॑रिवो॒वित्त॒रास॑त्॥६८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञः। दे॒वाना॑म्। प्रति॑। ए॒ति॒। सु॒म्नम्। आदि॑त्यासः। भव॑त। मृ॒ड॒यन्तः॑ ॥ आ। वः॒। अ॒र्वाची॑। सु॒म॒तिरिति॑ सुऽम॒तिः। व॒वृ॒त्या॒त्। अ॒ꣳहोः। चि॒त्। या। व॒रि॒वो॒वित्त॒रेति॑ वरिवो॒वित्ऽतरा॑। अस॑त् ॥६८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञो देवानाम्प्रत्येति सुम्नमादित्यासो भवता मृडयन्तः । आ वोर्वाची सुमतिर्ववृत्यादँहोश्चिद्या वरिवोवित्तरासत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञः। देवानाम्। प्रति। एति। सुम्नम्। आदित्यासः। भवत। मृडयन्तः॥ आ। वः। अर्वाची। सुमतिरिति सुऽमतिः। ववृत्यात्। अꣳहोः। चित्। या। वरिवोवित्तरेति वरिवोवित्ऽतरा। असत्॥६८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 68
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ–হে (আদিত্যাসঃ) সূর্য্যবৎতেজস্বী পূর্ণ বিদ্যাযুক্ত লোকেরা ! যেমন (দেবানাম্) বিদ্বান্দিগের (য়জ্ঞঃ) সঙ্গতি যোগ্য সংগ্রামাদি ব্যবহার (সুম্নম্) সুখ করিতে (প্রত্যেতি) বিপরীত ভাবে প্রাপ্ত হয় সেইরূপ (মৃডয়ন্তঃ) সুখকারী (ভবত) হও । যেমন (বঃ) তোমাদের (বরিবোবিত্তিরা) অত্যন্ত সেবা প্রাপ্ত (অর্বাচী) আমাদের অনুকূল (সুমতিঃ) উত্তম বুদ্ধি (আ, ববৃত্যাৎ) সম্যক্ প্রকার ব্যবহার কর (অংহোঃ) অপরাধীর (চিৎ) ও তদ্রূপ সুখকারী আমাদের অনুকূল বুদ্ধি (অসৎ) হউক ॥ ৬৮ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে দেশে পূর্ণ বিদ্যাযুক্ত রাজকর্মচারী হয়, সেখানে সকলে একমতি হইয়া অত্যন্ত সুখ বৃদ্ধি করে ॥ ৬৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - য়॒জ্ঞো দে॒বানাং॒ প্রত্যে॑তি সু॒ম্নমাদি॑ত্যাসো॒ ভব॑তা মৃড॒য়ন্তঃ॑ ।
    আ বো॒ऽর্বাচী॑ সুম॒তির্ব॑বৃত্যাদ॒ꣳহোশ্চি॒দ্যা ব॑রিবো॒বিত্ত॒রাস॑ৎ ॥ ৬৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - য়জ্ঞ ইত্যস্য কুৎস ঋষিঃ । আদিত্যা দেবতাঃ । স্বরাট্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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