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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 59
    ऋषिः - कुशिक ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    वि॒दद्यदी॑ स॒रमा॑ रु॒ग्णमद्रे॒र्महि॒ पाथः॑ पू॒र्व्यꣳ स॒ध्र्यक्कः।अग्रं॑ नयत्सु॒पद्यक्ष॑राणा॒मच्छा॒ रवं॑ प्रथ॒मा जा॑न॒ती गा॑त्॥५९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒दत्। यदि॑। स॒रमा॑। रु॒ग्णम्। अद्रेः॑। महि॑। पाथः॑। पूर्व्यम्। स॒ध्र्य॒क्। क॒रिति॑ कः ॥ अग्र॑म्। न॒य॒त्। सु॒पदीति॑ सु॒ऽपदी॑। अक्ष॑राणाम्। अच्छ॑। रव॑म्। प्र॒थ॒मा। जा॒न॒ती। गा॒त् ॥५९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विदद्यदी सरमा रुग्णमद्रेर्महि पाथः पूर्व्यँ सर्ध्यक्कः । अग्रन्नयत्सुपद्यक्षराणामच्छा रवम्प्रथमा जानती गात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विदत्। यदि। सरमा। रुग्णम्। अद्रेः। महि। पाथः। पूर्व्यम्। सध्र्यक्। करिति कः॥ अग्रम्। नयत्। सुपदीति सुऽपदी। अक्षराणाम्। अच्छ। रवम्। प्रथमा। जानती। गात्॥५९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 59
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ–(য়দি) যে (সরমা) পতির অনুকূল রমণকারিণী (প্রথমা) প্রখ্যাত (সুপদী) সুন্দর পদবিশিষ্টা (অক্ষরাণাম্) আকারাদি বর্ণে (রবম্) শব্দ (জানতী) জানিয়া (রুগ্নম্) রুগী প্রাণীকে (বিদৎ) জানিবে । (অগ্রম্) অগ্রে (নয়ৎ) উপস্থিতকারী (সধ্র্যক্) সঙ্গ প্রাপ্ত হয় (পূর্ব্যম্) প্রথমের লোকেরা প্রাপ্ত কৃত (মহি) মহাগুণযুক্ত (অদ্রেঃ) মেঘ হইতে উৎপন্ন (পাথঃ) অন্নকে (কঃ) করিবে অর্থাৎ ভোজনার্থ সিদ্ধ করিবে এবং পতিকে (অচ্ছে) উত্তম প্রকার (গাৎ) প্রাপ্ত হইবে, তাহা হইলে সে সুখ লাভ করিবে ॥ ৫ঌ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ– যে স্ত্রী বৈদ্যতুল্য সকলের হিতকারিণী ওষধি তুল্য অন্ন প্রস্তুত করিতে সক্ষম হয় এবং যথাযোগ্য বলিতেও জানে সে উত্তম সুখকে নিরন্তর পাইবে ॥ ৫ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - বি॒দদ্যদী॑ স॒রমা॑ রু॒গ্ণমদ্রে॒র্মহি॒ পাথঃ॑ পূ॒র্ব্যꣳ স॒র্ধ্য᳖ক্কঃ ।
    অগ্রং॑ নয়ৎসু॒পদ্যক্ষ॑রাণা॒মচ্ছা॒ রবং॑ প্রথ॒মা জা॑ন॒তী গা॑ৎ ॥ ৫ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - বিদদ্যদীত্যস্য কুশিক ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । ভুরিক্ পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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