अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
उ॑पश्व॒से द्रु॒वये॑ सीदता यू॒यं वि वि॑च्यध्वं यज्ञियास॒स्तुषैः॑। श्रि॒या स॑मा॒नानति॒ सर्वा॑न्त्स्यामाधस्प॒दं द्वि॑ष॒तस्पा॑दयामि ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒ऽश्व॒से । द्रु॒वये॑ । सी॒द॒त॒ । यू॒यम् । वि । वि॒च्य॒ध्व॒म् । य॒ज्ञि॒या॒स0952ग: । तुषै॑: । श्रि॒या । स॒मा॒नान् । अति॑ । सर्वा॑न् । स्या॒म॒ । अ॒ध॒:ऽप॒दम् । द्वि॒ष॒त: । पा॒द॒या॒मि॒ ॥१.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
उपश्वसे द्रुवये सीदता यूयं वि विच्यध्वं यज्ञियासस्तुषैः। श्रिया समानानति सर्वान्त्स्यामाधस्पदं द्विषतस्पादयामि ॥
स्वर रहित पद पाठउपऽश्वसे । द्रुवये । सीदत । यूयम् । वि । विच्यध्वम् । यज्ञियास0952ग: । तुषै: । श्रिया । समानान् । अति । सर्वान् । स्याम । अध:ऽपदम् । द्विषत: । पादयामि ॥१.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
विषय - उपश्वसे-द्रुवये
पदार्थ -
१. (उपश्वसे) = [उपश्वस Sounding. roaring] प्रभु के नामों के उच्चारण में तथा (द्रुवये) = [दुवयः a measure] माप में प्रत्येक क्रिया को माप-तोल कर करने में-माप-तोलकर खाने आदि की क्रियाओं में (यूयं सीदत) = तुम आसीन होओ, अर्थात् तुम प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करो तथा खान-पान आदि क्रियाओं को बड़ा माप-तोलकर करो तथा (यज्ञियास:) = यज्ञिय वृत्तिवाले बनकर (तुषैः) = तुच्छ वृत्तिवाले पुरुषों से-तुषों के समान नि:सार पुरुषों से (विविच्यध्वम्) = अपने को पृथक् करनेवाले होओ। सदा सत्संग में स्थित होनेवाले बनो। २. इसप्रकार जीवनवाले बनकर हम (श्रिया) = श्री के दृष्टिकोण से (सर्वान् समानान्) = सब समान जन्मवाले पुरुषों को (अति स्याम) = लांघ जाएँ। मैं (द्विषत:) = द्वेष करनेवाले शत्रुओं को (अधस्पदं पादयामि) = पाँवों तले रौंद डालता हूँ [पादयोरधस्तात् क्षिपामि]
भावार्थ -
प्रभुस्तवन से पृथक् न होते हुए हम भौतिक वस्तुओं का प्रयोग एकदम माप तोलकर करें। तुच्छवृत्ति के पुरुषों के संग में न उठे-बैठे, औरों से अधिक श्रीवाले हों और शत्रुओं को पादाक्रान्त कर सकें।
इस भाष्य को एडिट करें