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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 36
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - पुरोविराट्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त

    स॒माचि॑नुष्वानुस॒म्प्रया॒ह्यग्ने॑ प॒थः क॑ल्पय देव॒याना॑न्। ए॒तैः सु॑कृ॒तैरनु॑ गच्छेम य॒ज्ञं नाके॒ तिष्ठ॑न्त॒मधि॑ स॒प्तर॑श्मौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽआचि॑नुष्व । अ॒नु॒ऽसं॒प्रया॑हि । अ॒ग्ने॒ । प॒थ: । क॒ल्प॒य॒ । दे॒व॒ऽयाना॑न् । ए॒तै: । सु॒ऽकृ॒तै: । अनु॑ । ग॒च्छे॒म॒ । य॒ज्ञम् । नाके॑ । तिष्ठ॑न्तम् । अधि॑ । स॒प्तऽर॑श्मौ ॥१.३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समाचिनुष्वानुसम्प्रयाह्यग्ने पथः कल्पय देवयानान्। एतैः सुकृतैरनु गच्छेम यज्ञं नाके तिष्ठन्तमधि सप्तरश्मौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽआचिनुष्व । अनुऽसंप्रयाहि । अग्ने । पथ: । कल्पय । देवऽयानान् । एतै: । सुऽकृतै: । अनु । गच्छेम । यज्ञम् । नाके । तिष्ठन्तम् । अधि । सप्तऽरश्मौ ॥१.३६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 36

    पदार्थ -

    १.हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव! (सम् आचिनुष्व) = तु सब ओर से ज्ञान का संचय कर और (अनु सं प्रयाहि) = उस ज्ञान के अनुसार सम्यक गतिवाला हो। अपने जीवन में (देवयानान् पथ: कल्पय) = देवयान मागों का निर्माण कर-उन मार्गों से चल, जिनपर देव चला करते हैं। २. यह ज्ञान संचेता जीव प्रार्थना करता है कि (एतैः सुकृतैः) = इन उत्तम कर्मों से हम (अधि सप्तरश्मौ) = सूर्य से भी ऊपर (नाके) = दुःख से अर्सभिन्न आनन्दमय स्वरूप में (तिष्ठन्तम्) = स्थित होते हुए (यज्ञम्) = उस (उपासनीय) = संगतिकरणयोग्य व समर्पणीय प्रभु को (अनुगच्छेम) = प्राप्त हों। ('सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषो हाव्ययात्मा')

    भावार्थ -

    हम ज्ञान का सञ्चय करें, ज्ञान के अनुसार कर्मों को करनेवाले बनें। देवयान मागों पर चलें। इन पुण्यकर्मों के द्वारा 'पृथिवीलोक से ऊपर अन्तरिक्ष को, अन्तरिक्ष से ऊपर युलोक को तथा धुलोक से ऊपर उठकर ब्रह्मलोक को प्राप्त करें।'

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