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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 26
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त

    सोम॑ राजन्त्सं॒ज्ञान॒मा व॑पैभ्यः॒ सुब्रा॑ह्मणा यत॒मे त्वो॑प॒सीदा॑न्। ऋषी॑नार्षे॒यांस्तप॒सोऽधि॑ जा॒तान्ब्र॑ह्मौद॒ने सु॒हवा॑ जोहवीमि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोम॑ । रा॒ज॒न् । स॒म्ऽज्ञान॑म् । आ । व॒प॒ । ए॒भ्य॒: । सुऽब्रा॒ह्म॒णा: । य॒त॒मे । त्वा॒ । उ॒प॒ऽसीदा॑न् । ऋषी॑न् ।आ॒र्षे॒यान् । तप॑स: । अधि॑ । जा॒तान् । ब्र॒ह्म॒ऽओ॒द॒ने । सु॒ऽहवा॑ । जो॒ह॒वी॒मि॒ ॥१.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोम राजन्त्संज्ञानमा वपैभ्यः सुब्राह्मणा यतमे त्वोपसीदान्। ऋषीनार्षेयांस्तपसोऽधि जातान्ब्रह्मौदने सुहवा जोहवीमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सोम । राजन् । सम्ऽज्ञानम् । आ । वप । एभ्य: । सुऽब्राह्मणा: । यतमे । त्वा । उपऽसीदान् । ऋषीन् ।आर्षेयान् । तपस: । अधि । जातान् । ब्रह्मऽओदने । सुऽहवा । जोहवीमि ॥१.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 26

    पदार्थ -

    १. हे (राजन् सोम) = शरीर में सुरक्षित होने पर शरीर की शक्तियों को दीप्त करनेवाले सोम [वीर्य]! (एभ्यः) = इन सबके लिए, (यतमे) = जितने (सुब्राह्मणा:) = उत्तम ब्रह्म के उपासक लोग (त्वा उपसीदान्) = तेरी उपासना करें, अर्थात् तुझे शरीर में सुरक्षित रखने के लिए यन करें, उन सबके लिए (संज्ञानम्) = सम्यक् ज्ञान को (आवप) = [निधेहि-सा०] प्राप्त करा। सोमरक्षण के द्वारा ज्ञानाग्नि को दीप्त करके हम संज्ञानवाले बनें। २. एक गृहपली संकल्प करती है मैं (सुहवा) = शोभन आह्वानवाली होती हुई ब्रह्मौदने ज्ञान के भोजन के निमित्त (तपसः अधिजातान्) = तप के द्वारा विकसित ज्ञानवाले (आर्षेयान्) = सदा [ऋषौ भवान्] ज्ञान में निवास करनेवाले (ऋषीन्) = [ऋष् to kill] वासना को विनष्ट करनेवाले इन लोगों को (जोहवीमि) = पुकारती हूँ। इनका आतिथ्य करती हुई इनसे ज्ञान की प्रेरणाओं को प्राप्त करती हैं।

    भावार्थ -

    हम शरीर में सोम का रक्षण तथा घर में ज्ञानी ब्राह्मणों का आतिथ्य करते हुए ज्ञान प्राप्त करें।

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