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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 21
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त

    उ॒देहि॒ वेदिं॑ प्र॒जया॑ वर्धयैनां नु॒दस्व॒ रक्षः॑ प्रत॒रं धे॑ह्येनाम्। श्रि॒या स॑मा॒नानति॒ सर्वा॑न्त्स्यामाधस्प॒दं द्वि॑ष॒तस्पा॑दयामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽएहि॑ । वेदि॑म् । प्र॒ऽजया॑ । व॒र्ध॒य॒ । ए॒ना॒म् । नु॒दस्व॑ । रक्ष॑: । प्र॒ऽत॒रम् । धे॒हि॒ । ए॒ना॒म् । श्रि॒या । स॒मा॒नान् । अति॑ । सर्वा॑न् । स्या॒म॒ । अ॒ध॒:ऽप॒दम् । द्वि॒ष॒त: । पा॒द॒या॒मि॒ ॥१.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदेहि वेदिं प्रजया वर्धयैनां नुदस्व रक्षः प्रतरं धेह्येनाम्। श्रिया समानानति सर्वान्त्स्यामाधस्पदं द्विषतस्पादयामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽएहि । वेदिम् । प्रऽजया । वर्धय । एनाम् । नुदस्व । रक्ष: । प्रऽतरम् । धेहि । एनाम् । श्रिया । समानान् । अति । सर्वान् । स्याम । अध:ऽपदम् । द्विषत: । पादयामि ॥१.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 21

    पदार्थ -

    १. हे पक्वौदन पुरुष-ज्ञान के भोजन का परिपाक करनेवाले पुरुष! तू (वेदिं उत् एहि) = यज्ञभूमि के प्रति उत्कर्षेण प्रास होनेवाला हो। (प्रजया) = अपने सन्तानों के साथ (एनान्) = इस यज्ञवेदि को (वर्धय) = तू बढ़ानेवाला हो-यज्ञवेदी की शोभा को बढ़ा। सन्तानों के साथ मिलकर यज्ञ कर। (नुदस्व रक्ष:) = राक्षसी भावों को परे धकेल दे। (एनाम्) = इस यज्ञवेदि को (प्रतरम्) = प्रकृष्टतर रूप में (धेहि) = धारण कर। २. प्रभु से प्रेरित हुआ-हुआ उपासक प्रार्थना करता है कि मैं (श्रिया) = श्री के दुष्टिकोण से (सर्वान् समानान् अति स्याम) = एकसमान जन्मा पुरुषों को लाँघ जाऊँ और (द्विषत:) = द्वेष के कारणभूत काम-क्रोध आदि को (उधस्पदं पादयामि) = पाँव तले रौंद डालता हूँ।

    भावार्थ -

    हम सन्तानों के साथ यज्ञवेदि की शोभा को बढ़ानेवाले बनें। राक्षसी भावों को दूर धकेल दें। सर्वाधिक श्रीवाले हों और काम-क्रोध आदि शत्रुओं को पादाक्रान्त कर लें।

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