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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 30
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त

    श्राम्य॑तः॒ पच॑तो विद्धि सुन्व॒तः पन्थां॑ स्व॒र्गमधि॑ रोहयैनम्। येन॒ रोहा॒त्पर॑मा॒पद्य॒ यद्वय॑ उत्त॒मं नाकं॑ पर॒मं व्योम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्राम्य॑त: । पच॑त: । वि॒ध्दि॒ । सु॒न्व॒त: । पन्था॑म् । स्व॒:ऽगम् । अधि॑ । रो॒ह॒य॒ । ए॒न॒म् । येन॑ । रोहा॑त् । पर॑म् । आ॒ऽपद्य॑ । यत् । वय॑: । उ॒त्ऽत॒मम् । नाक॑म् । प॒र॒मम् । विऽओ॑म ॥१.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्राम्यतः पचतो विद्धि सुन्वतः पन्थां स्वर्गमधि रोहयैनम्। येन रोहात्परमापद्य यद्वय उत्तमं नाकं परमं व्योम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्राम्यत: । पचत: । विध्दि । सुन्वत: । पन्थाम् । स्व:ऽगम् । अधि । रोहय । एनम् । येन । रोहात् । परम् । आऽपद्य । यत् । वय: । उत्ऽतमम् । नाकम् । परमम् । विऽओम ॥१.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 30

    पदार्थ -

    १. ब्रह्मचर्याश्रम में (श्राम्यत:) = ज्ञान-प्राप्ति में श्रम करते हुए, (पचत:) = ज्ञानाग्नि में अपना परिपाक करते हुए, (सुन्वत:) = शरीर में (सोम) = [वीर्य]-शक्ति का अभिषव करते हुए इन युवकों को (विद्धि) = जान-इनका रक्षण कर। गत मन्त्र के तुषों से ये भिन्न हैं। इन्होंने ही तो राष्ट्रगृह का उत्तम सदस्य बनना है। इनका जितना ध्यान रखा जाए उतना ही ठीक है। हे प्रभो! आप (एनम्) = इस 'श्राम्यन, पचन्, सुन्वन्' पुरुष को (स्वर्ग पन्थाम्) = प्रकाश व सुख को प्राप्त करानेवाले मार्ग पर अधिरोहय अधिरूढ़ कीजिए, २. (येन) = जिससे यह (यत् परं वयः आपद्य) = जो उत्कृष्ट जीवन है, उसे प्राप्त करके (उत्तमं नाकम्) = उत्कृष्ट सुखमय स्थिति को (रोहात्) = आरूढ़ हो तथा (परमं व्योम) = सर्वोत्कृष्ट व्योम [आकाशवत् व्यापक] प्रभु को प्राप्त करे [ओम् खं ब्रह्म]।

    भावार्थ -

    हम श्रमशील, ज्ञानानि में अपने को परिपक्व करनेवाले व सोम का सम्पादन करनेवाले बनें। प्रकाश व सुख के मार्ग पर आरूढ़ हों। उत्कृष्ट जीवन को प्राप्त करके स्वर्ग तुल्य इस जीवन को बिताने के बाद प्रभु को प्राप्त करें-मुक्त हो जाएँ।

     

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