अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 25
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - विराड्जगती
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
शृ॒तं त्वा॑ ह॒व्यमुप॑ सीदन्तु दै॒वा निः॒सृप्या॒ग्नेः पुन॑रेना॒न्प्र सी॑द। सोमे॑न पू॒तो ज॒ठरे॑ सीद ब्र॒ह्मणा॑मार्षे॒यास्ते॒ मा रि॑षन्प्राशि॒तारः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठशृ॒तम् । त्वा॒ । ह॒व्यम् । उप॑ । सी॒द॒न्तु॒ । दै॒वा: । नि॒:ऽसृप्य॑ । अ॒ग्ने: । पुन॑: । ए॒ना॒न् । प्र । सी॒द॒ । सोमे॑न । पू॒त: । ज॒ठरे॑ । सी॒द॒ । ब्र॒ह्मणा॑म् । आ॒र्षे॒या: । ते॒ । मा । रि॒ष॒न् । प्र॒ऽअ॒शि॒तार॑: ॥१.२५
स्वर रहित मन्त्र
शृतं त्वा हव्यमुप सीदन्तु दैवा निःसृप्याग्नेः पुनरेनान्प्र सीद। सोमेन पूतो जठरे सीद ब्रह्मणामार्षेयास्ते मा रिषन्प्राशितारः ॥
स्वर रहित पद पाठशृतम् । त्वा । हव्यम् । उप । सीदन्तु । दैवा: । नि:ऽसृप्य । अग्ने: । पुन: । एनान् । प्र । सीद । सोमेन । पूत: । जठरे । सीद । ब्रह्मणाम् । आर्षेया: । ते । मा । रिषन् । प्रऽअशितार: ॥१.२५
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 25
विषय - आर्षेय पुरुषों का अहिंसन
पदार्थ -
परिपक्व ज्ञान प्राप्त होता है। हे ब्रह्मौदन ! तू (अग्नेः) = उस अग्नणी प्रभु से (निःसृप्य) = निकलकर (पुन:) = फिर (एनान्) = इन उपासकों को (प्रसीद) = प्राप्त हो। प्रभु के उपासक हृदयस्थ प्रभु से ज्ञान प्राप्त करते हैं। २. (सोमेन) = शरीर में सुरक्षित सोमशक्ति द्वारा (पूत:) = पवित्र हुआ-हुआ, हे ब्रह्मौदन! तू (ब्रह्मणाम्) = इन जानियों के (जठरे) = जठर में-इनके अन्दर (सीद) = आसीन हो। शरीर में सुरक्षित सोम ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है और दीस ज्ञानाग्नि में ज्ञान पवित्र हो जाता है। (ते प्राशितार:) = वे ब्रह्मौदन को खानेवाले (आर्षेया:) = [ऋषिः वेदः, तस्य इमे] ज्ञान के उपासक लोग (मा रिषन्) = हिसित न हों।
भावार्थ -
प्रभु के उपासक परिपक्व ज्ञान को प्राप्त करते हैं-इन्हें अन्त:स्थ प्रभु से ज्ञान प्रास होने लगता है। शरीर में सुरक्षित सोम से ज्ञान की पवित्रता होती है। ब्रह्मौदन को खानेवाले ये ज्ञानभक्त पुरुष वासनाओं से हिंसित नहीं होते।
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