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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 33
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त

    आ॑र्षे॒येषु॒ नि द॑ध ओदन त्वा॒ नाना॑र्षेयाणा॒मप्य॒स्त्यत्र॑। अ॒ग्निर्मे॑ गो॒प्ता म॒रुत॑श्च॒ सर्वे॒ विश्वे॑ दे॒वा अ॒भि र॑क्षन्तु प॒क्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒र्षे॒येषु॑ । नि । द॒धे॒ । ओ॒द॒न॒ । त्वा॒ । न । अना॑र्षेयाणाम् । अपि॑ । अ॒स्ति॒ । अत्र॑ । अ॒ग्नि: । मे॒ । गो॒प्ता । म॒रुत॑: । च॒ । सर्वे॑ । विश्वे॑ । दे॒वा: । अ॒भि । र॒क्ष॒न्तु॒ । प॒क्वम् ॥१.३३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आर्षेयेषु नि दध ओदन त्वा नानार्षेयाणामप्यस्त्यत्र। अग्निर्मे गोप्ता मरुतश्च सर्वे विश्वे देवा अभि रक्षन्तु पक्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आर्षेयेषु । नि । दधे । ओदन । त्वा । न । अनार्षेयाणाम् । अपि । अस्ति । अत्र । अग्नि: । मे । गोप्ता । मरुत: । च । सर्वे । विश्वे । देवा: । अभि । रक्षन्तु । पक्वम् ॥१.३३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 33

    पदार्थ -

    १. प्रभु कहते हैं कि हे (ओदन) = ब्रह्मौदन-ज्ञान के भोजन ! (त्वा) = तुझे (आर्षेयेषु) = ज्ञानरुचिवाले पुरुषों में (निदधे) = स्थापित करता हूँ। (अनार्षेयाणाम्) = ज्ञानरुचिशून्य पुरुषों का (अत्र) = इस ब्रह्मौदन में (न अपि अस्ति) = भाग नहीं है। ज्ञान की रुचि के अभाव में उन्हें ज्ञान प्राप्त करना ही क्या? २. ज्ञान की रुचिवाले पुरुष को (मे अग्निः गोप्ता) = मेरा यह अग्नितत्त्व रक्षित करनेवाला होता है, (च) = और (सर्वे मरुतः) = सब मरुत [प्राण] भी उस ज्ञानरुचि पुरुष का रक्षण करते हैं। ज्ञानरुचिता होने पर वासनामय जीवन नहीं होता और वासनामय जीवन के न होने पर शरीर में अग्नितत्त्व तथा प्राणशक्ति ठीक बनी रहती है। (पक्वम्) = इस ज्ञान परिपक्व मनुष्य को (विश्वेदेवाः) = संसार के सूर्य-चन्द्रादि सब देव (अभिरक्षन्तु) = सर्वत: रक्षित करनेवाले हों। ज्ञानी पुरुष सब देवों के साथ समुचित सम्पर्क बनाता हुआ सुखी व नीरोग जीवनवाला होता ही है।

    भावार्थ -

    ज्ञानरुचि पुरुष ज्ञान को प्राप्त करके, सब देवों के साथ समुचित सम्पर्क बनाते हुए, सुखी व सुरक्षित जीवनवाले होते हैं। वासनामय जीवन न होने के कारण इनके शरीर में अग्नितत्त्व तथा प्राणशक्ति ठीक बनी रहती है।

     

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