अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 15
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
ऊ॒र्जो भा॒गो निहि॑तो॒ यः पु॒रा व॒ ऋषि॑प्रशिष्टा॒प आ भ॑रै॒ताः। अ॒यं य॒ज्ञो गा॑तु॒विन्ना॑थ॒वित्प्र॑जा॒विदु॒ग्रः प॑शु॒विद्वी॑र॒विद्वो॑ अस्तु ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ज: । भा॒ग: । निऽहि॑त: । य: । पु॒रा । व॒: । ऋषि॑ऽप्रशिष्टा । अ॒प: । आ । भ॒र॒ । ए॒ता: । अ॒यम् । य॒ज्ञ: । गा॒तु॒ऽवित् । ना॒थ॒ऽवित् । प्र॒जा॒ऽवित् । उ॒ग्र: । प॒शु॒ऽवित् । वी॒र॒ऽवित् । व॒: । अ॒स्तु॒ ॥१.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्जो भागो निहितो यः पुरा व ऋषिप्रशिष्टाप आ भरैताः। अयं यज्ञो गातुविन्नाथवित्प्रजाविदुग्रः पशुविद्वीरविद्वो अस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ज: । भाग: । निऽहित: । य: । पुरा । व: । ऋषिऽप्रशिष्टा । अप: । आ । भर । एता: । अयम् । यज्ञ: । गातुऽवित् । नाथऽवित् । प्रजाऽवित् । उग्र: । पशुऽवित् । वीरऽवित् । व: । अस्तु ॥१.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 15
विषय - गातुवित्-बीरवित् [यज्ञः]
पदार्थ -
१. हे नारि! (एता:) = इन (ऋषिप्रशिष्टा) = [ऋषिः मन्त्रः] वेदमन्त्रों द्वारा उपदिष्ट (अप:) = कर्मों को (आभर) = सब प्रकार से धारण करनेवाली हो। यह कर्म वह है (यः) = जोकि (पुरा) = सृष्टि के प्रारम्भ में ही प्रभु द्वारा (व:) = तुम्हारे लिए (ऊर्ज:) = बल व प्राणशक्ति का (भाग:) = अंश (निहित:) = रक्खा गया है। कर्म ही तो तुम्हारी शक्ति को स्थिर रक्खेगा। कर्म छोड़ा और जीर्णता आई [Rest किया rust लगा]।२. (अयं यज्ञ:) = यह यज्ञात्मक कर्म (वः) = तुम्हारे लिए (गातुवित्) = स्वर्ग-मार्ग का प्रापक है, (नाथवित्) = प्रभु को व ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाला है [नाथ-ऐश्वर्य], (प्रजावित्) = यह उत्तम शक्तियों के विकास [सन्तानों] को प्राप्त करानेवाला है, (उग्र:) = तेजस्वी है, (पशवित्) = उत्तम गवादि पशुओं को प्राप्त करानेवाला है। यह यज्ञ (वीरवित् अस्तु) = उत्तम वीर सन्तानों को प्राप्त करानेवाला हो।
भावार्थ -
नारी वेदोपदिष्ट यज्ञात्मक कर्मों में व्याप्त रहे। इससे शक्ति बनी रहेगी और जीर्णता न आएगी। यह यज्ञ स्वर्ग का मार्ग है, प्रभु को प्राप्त करानेवाला है। यह उत्तम प्रजा [शक्ति-विकास]-वाला, उत्तम पशुओंवाला व वीर सन्तानोंवाला है।
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