अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - उष्णिक्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
अग्ने॒ सह॑स्वानभि॒भूर॒भीद॑सि॒ नीचो॒ न्युब्ज द्विष॒तः स॒पत्ना॑न्। इ॒यं मात्रा॑ मी॒यमा॑ना मि॒ता च॑ सजा॒तांस्ते॑ बलि॒हृतः॑ कृणोतु ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । सह॑स्वान् । अ॒भि॒ऽभू: । अ॒भि । इत् । अ॒सि॒ । नीच॑: । नि । उ॒ब्ज॒ । द्वि॒ष॒त: । स॒ऽपत्ना॑न् । इ॒यम् । मात्रा॑ । मीय॑माना । मि॒ता । च॒ । स॒ऽजा॒तान् । ते॒ । ब॒लि॒ऽहृत॑: । कृ॒णो॒तु॒ ॥१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने सहस्वानभिभूरभीदसि नीचो न्युब्ज द्विषतः सपत्नान्। इयं मात्रा मीयमाना मिता च सजातांस्ते बलिहृतः कृणोतु ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । सहस्वान् । अभिऽभू: । अभि । इत् । असि । नीच: । नि । उब्ज । द्विषत: । सऽपत्नान् । इयम् । मात्रा । मीयमाना । मिता । च । सऽजातान् । ते । बलिऽहृत: । कृणोतु ॥१.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
विषय - 'मात्रा [बलम्]'
पदार्थ -
१. (अग्ने) = हे प्रगतिशील जीव! तू (सहस्वान्) = शत्रुमर्षक बलबाला है। (अभिभू:) = शत्रुओं को अभिभूत करनेवाला, (इत्) = सचमुच (अभि असि) [भवसि] = शत्रुओं को पराभूत करता है। तू (द्विषतः सपत्नान्) = द्वेष करनेवाले इन शत्रुओं को (नीचः न्युब्ज) = नीचे पादाक्रान्त कर दे [उब्ज आर्जवे, अत्र उपसर्गवशाद् अधोमुखीकरणम् अर्थ:-सा०]। २. जीवन में शत्रुओं को पराभूत करने का मूलभूत उपाय सब कार्यों को माप-तोलकर करना है। विशेषकर भोजन में तो मात्रा आवश्यक ही है। यह मात्रा ही उपनिषद् के 'मात्रा बलम्' इन शब्दों में बल की संस्थापक है। (इयम्) = यह (मीयमाना) = सदा मापी जाती हुई (च मिता) = और मपी हुई (मात्रा) = मात्रा (ते) = तेरे (सजातान्) = साथ उत्पन्न होनेवालों को (बलिहृतः कृणोतु) = तेरे लिए बलि [कर] देनेवाला करे, अर्थात् ये सब सजात तेरे अधीन हों। 'मात्रा' के नियम का पालन करना हमें औरों से अधिक शक्तिशाली बनाता है। राजा मात्रा में कर लेता है तो आभ्यन्तर व बाह्य उपद्रवों का शिकार नहीं होता। इसी प्रकार हम 'खाने व बोलने' में मात्रा के नियम का पालन करते हुए व्याधियों व आधियों से पीड़ित नहीं होते।
भावार्थ -
'मात्रा' के नियम का पालन करते हुए हम शत्रुओं को अभिभूत करनेवाले बनें।
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