अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 22
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
अ॒भ्याव॑र्तस्व प॒शुभिः॑ स॒हैनां॑ प्र॒त्यङे॑नां दे॒वता॑भिः स॒हैधि॑। मा त्वा॒ प्राप॑च्छ॒पथो॒ माभि॑चा॒रः स्वे क्षेत्रे॑ अनमी॒वा वि रा॑ज ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽआव॑र्तस्व । प॒शुऽभि॑: । स॒ह । ए॒ना॒म् । प्र॒त्यङ् । ए॒ना॒म् । दे॒वता॑भि: । स॒ह । ए॒धि॒ । मा । त्वा॒ । प्र । आ॒प॒त् । श॒पथ॑: । मा । अ॒भि॒ऽचा॒र: । स्वे । क्षेत्रे॑ । अ॒न॒मी॒वा । वि । रा॒ज॒ ॥१.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यावर्तस्व पशुभिः सहैनां प्रत्यङेनां देवताभिः सहैधि। मा त्वा प्रापच्छपथो माभिचारः स्वे क्षेत्रे अनमीवा वि राज ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽआवर्तस्व । पशुऽभि: । सह । एनाम् । प्रत्यङ् । एनाम् । देवताभि: । सह । एधि । मा । त्वा । प्र । आपत् । शपथ: । मा । अभिऽचार: । स्वे । क्षेत्रे । अनमीवा । वि । राज ॥१.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 22
विषय - अनमीवा [विराज]
पदार्थ -
१. हे ब्रह्मौदन [ज्ञान के भोजन]! (एनाम्) = इस गृहपत्नी को (पशुभिः सह अभ्यावर्तस्व) = गौ आदि पशुओं के साथ प्रास हो। यह गृहिणी गौ आदि का पालन भी करे और स्वाध्याय भी अवश्य करे तथा (एनाम्) = इसे (देवताभिः सह) = यष्टव्य देवों के साथ (प्रत्यङ् एधि) = तू आभिमुख्येन जाता हुआ हो, अर्थात् यह देवयज्ञ आदि यज्ञों को भी करे और ज्ञान के भोजन का परिपाक भी करे-यह स्वाध्यायशील भी हो। २. इस स्थिति में (त्वा) = तुझे (शपथः मा प्रापत्) = आक्रोश मत प्राप्त हो-तू अपशब्द बोलनेवाली न हो, तेरे लिए कोई अपशब्द न कहे। तुझे (अभिचारः मा) = हिंसार्थ की जानेवाली क्रियाएँ भी प्राप्त न हों। तू किसी की हिंसा के लिए कोई कर्म न कर । (स्वे क्षेत्रे) = अपने इस घर में व शरीर में (अनमीवा विराज) = रोगरहित हुई-हुई दीत जीवनवाली बन।
भावार्थ -
गृहपली स्वाध्याय को न छोड़ती हुई गौ आदि पशुओं की सेवा करे-देवयज्ञादि यज्ञों को करनेवाली हो, कभी अपशब्द कहनेवाली व हिंसाकर्म में प्रवृत्त न हो। इसप्रकार घर में नीरोग व दीप्त जीवनवाली बने।
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