अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
समि॑द्धो अग्ने स॒मिधा॒ समि॑ध्यस्व वि॒द्वान्दे॒वान्य॒ज्ञियाँ॒ एह व॑क्षः। तेभ्यो॑ ह॒विः श्र॒पयं॑ जातवेद उत्त॒मं नाक॒मधि॑ रोहये॒मम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽइ॑ध्द: । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽइधा॑ । सम् । इ॒ध्य॒स्व॒ । वि॒द्वान् । दे॒वान् । य॒ज्ञिया॑न् । आ । इ॒ह । व॒क्ष: । तेभ्य॑: । ह॒वि: । श्र॒पय॑न् । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । उ॒त्ऽत॒मम् । नाक॑म् । अधि॑ । रो॒ह॒य॒ । इ॒मम् ॥१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धो अग्ने समिधा समिध्यस्व विद्वान्देवान्यज्ञियाँ एह वक्षः। तेभ्यो हविः श्रपयं जातवेद उत्तमं नाकमधि रोहयेमम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइध्द: । अग्ने । सम्ऽइधा । सम् । इध्यस्व । विद्वान् । देवान् । यज्ञियान् । आ । इह । वक्ष: । तेभ्य: । हवि: । श्रपयन् । जातऽवेद: । उत्ऽतमम् । नाकम् । अधि । रोहय । इमम् ॥१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
विषय - ब्रह्मचर्याश्रम में ज्ञान, गृहस्थ में अतिथियज्ञ
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव! तु (समिधा) = ज्ञानदीप्ति से (समिद्ध:) = आचार्यों द्वारा दीप्त किया हुआ (समिध्यस्व) = दीप्त हो, अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम में आचार्य तेरी ज्ञानाग्नि में प्रथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक' के पदार्थों के ज्ञान के रूपवाली तीन समिधाओं को डाले। इससे तेरी ज्ञानाग्नि खूब दीप्स हो और तू ज्ञान से चमक उठे। अब गृहस्थ में प्रवेश करने पर (विद्वान्) = ज्ञानी होता हुआ तू (इह) = यहाँ-घर पर (यज्ञियान् देवान्) = पूजनीय दिव्य वृत्तिवाले ज्ञानी पुरुषों को (आवक्ष:) = प्रास करा-तू इनका आतिथ्य करनेवाला बन। २. (तेभ्य:) = उन यज्ञिय देवों के लिए (हविः अपयन्) = हवि को-पवित्र भोजनीय द्रव्य को [हु अदने] पकाता हुआ, हे (जातवेदः) = उत्पन्न ज्ञानवाला तू (इमम्) = इस अपने को (उत्तमं नाकम् अधिरोहय) = उत्तम दुःख से रहित मोक्षलोक में प्राप्त करानेवाला बन। ज्ञानी अतिथियों का आतिथ्य तेरे जीवन को पवित्र बनाये और तू मोक्ष-प्राप्ति का अधिकारी हो।
भावार्थ -
ब्रह्मचर्याश्रम में हम लोकत्रयी के पदार्थों का ज्ञान प्रास करें। गृहस्थ में आने पर यज्ञियदेवों के सम्पर्क में रहें। उनका आतिथ्य करते हुए हम उनकी प्रेरणाओं से पवित्र जीवनवाले बनकर मोक्ष के भागी हों।
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