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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 35
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - चतुष्पदा ककुम्मत्युष्णिक् सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त

    वृ॑ष॒भोसि॑ स्व॒र्ग ऋषी॑नार्षे॒यान्ग॑च्छ। सु॒कृतां॑ लो॒के सी॑द॒ तत्र॑ नौ संस्कृ॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृ॒ष॒भ: । अ॒सि॒ । स्व॒:ऽग: । ऋषी॑न् । आ॒र्षे॒यान् । ग॒च्छ॒ । सु॒ऽकृता॑म् । लो॒के । सी॒द॒ । तत्र॑ । नौ॒ । सं॒स्कृ॒तम् ॥१.३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषभोसि स्वर्ग ऋषीनार्षेयान्गच्छ। सुकृतां लोके सीद तत्र नौ संस्कृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषभ: । असि । स्व:ऽग: । ऋषीन् । आर्षेयान् । गच्छ । सुऽकृताम् । लोके । सीद । तत्र । नौ । संस्कृतम् ॥१.३५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 35

    पदार्थ -

    १. हे प्रभो! आप (वृषभः असि) = सुखों व शक्ति का सेचन करनेवाले हैं, (स्वर्ग:) = प्रकाश को प्राप्त करानेवाले हैं [स्व: गमयति]।आप ऋषीन्-[ऋष् tokill] वासनाओं का संहार करनेवाले (आर्षेयान्) = [ऋषी वेदे भवान्] ज्ञान में रुचिवाले पुरुषों को (गच्छ) = प्राप्त होओ। २. आप (सुकृताम्) = पुण्यकर्मा लोगों के लोके-लोक में (सीद) = आसीन होओ। (तत्र) = वहाँ सुकर्मा लोगों के लोक में (नौ) = पति-पत्नी हम दोनों का (संस्कृतम्) = [Purification] पवित्रीकरण हो। सत्संग में हम पवित्र जीवनवाले बनें।

    भावार्थ -

    प्रभु वृषभ हैं-स्वर्ग हैं। वासनाओं को विनष्ट करनेवाले ज्ञानरुचि-पुरुषों को प्राप्त होते हैं। पुण्यकर्मा लोगों के लोक में प्रभु का निवास है। वहाँ सजन-संग में ही हम पति पत्नी का पवित्रीकरण होता है।

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