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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - शक्वरातिजागतगर्भा जगती सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त

    ए॒तौ ग्रावा॑णौ स॒युजा॑ युङ्ग्धि॒ चर्म॑णि॒ निर्भि॑न्ध्यं॒शून्यज॑मानाय सा॒धु। अ॒व॒घ्न॒ती नि ज॑हि॒ य इ॒मां पृ॑त॒न्यव॑ ऊ॒र्ध्वं प्र॒जामु॑द्भर॒न्त्युदू॑ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तौ । ग्रावा॑णौ । स॒ऽयुजा॑ । यु॒ङ्ग्धि॒ । चर्म॑णि । नि: । भि॒न्धि॒ । अं॒शून् । यज॑मानाय । सा॒धु । अ॒व॒ऽघ्न॒ती । नि । ज॒हि॒ । ये । इ॒माम् । पृ॒त॒न्यव: । ऊ॒र्ध्वम् । प्र॒ऽजाम् । उ॒त्ऽभर॑न्ती । उत् । ऊ॒ह ॥१.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतौ ग्रावाणौ सयुजा युङ्ग्धि चर्मणि निर्भिन्ध्यंशून्यजमानाय साधु। अवघ्नती नि जहि य इमां पृतन्यव ऊर्ध्वं प्रजामुद्भरन्त्युदूह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतौ । ग्रावाणौ । सऽयुजा । युङ्ग्धि । चर्मणि । नि: । भिन्धि । अंशून् । यजमानाय । साधु । अवऽघ्नती । नि । जहि । ये । इमाम् । पृतन्यव: । ऊर्ध्वम् । प्रऽजाम् । उत्ऽभरन्ती । उत् । ऊह ॥१.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 9

    पदार्थ -

    १. हे यज्ञशील पुरुष! तू (एतौ) = इन (सयुजा) = अवहनन [कूटने के] कर्म में साथ-साथ व्याप्रियमाण (ग्रावाणौ) = अश्मवत् दृढ़तर ऊखल और मूसल को (चर्मणि) = अवहननार्थ आस्तीर्ण चर्म पर (युङ्ग्धि) = स्थापित कर। अब (यजमानाय साधु अंशून् निर्भिन्धि) = इस यज्ञशील पुरुष के लिए यागनिर्वतक व्रीहिकणों को सम्यक् तुषरहित कर [उलूखलमुसलयोः ग्रावत्वेन रूपणात् वीहयः सोमांशत्वेन रूप्यन्ते], यज्ञ के लिए हविर्द्रव्यों को तैयार कर । २. ऊखल व मूसल में व्रीहिकणों को कूटती हुई गृहपत्नी से पति कहता है कि (अवघ्नती) = इस अवहनन कार्य को करती हुई तू उनको भी (निजहि) = नष्ट कर, (ये) = जोकि (इमां पृतन्यवः) = इस मातृभूमि पर सेना द्वारा आक्रमण की कामनावाले होते हैं। जिस प्रकार (उद् भरन्ती) = तू मूसल को ऊपर उठाती है, उसी प्रकार (प्रजां ऊर्य उदूह) = प्रजा को ऊपर स्थापित कर । प्रजा को उन्नत [श्रेष्ठ] स्थान प्राप्त करा।

    भावार्थ -

    जिस प्रकार यज्ञ के लिए हविद्रव्यों को ऊखल में कूटते हैं, इसी प्रकार हम शत्रुओं को कूटनेवाले बनें। जैसे मूसल को ऊपर उठाया जाता है, इसी प्रकार हम अपनी प्रजाओं को उन्नत करें।

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