अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 13
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
परे॑हि नारि॒ पुन॒रेहि॑ क्षि॒प्रम॒पां त्वा॑ गो॒ष्ठोऽध्य॑रुक्ष॒द्भरा॑य। तासां॑ गृह्णीताद्यत॒मा य॒ज्ञिया॒ अस॑न्वि॒भाज्य॑ धी॒रीत॑रा जहीतात् ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ । इ॒हि॒ । ना॒रि॒ । पुन॑: । आ । इ॒हि॒ । क्षि॒प्रम् । अ॒पाम् । त्वा॒ । गो॒ऽस्थ: । अधि॑ । अ॒रु॒क्ष॒त् । भरा॑य । तासा॑म् । गृ॒ह्णी॒ता॒त् । य॒त॒मा: । य॒ज्ञिया॑: । अस॑न् । वि॒ऽभाज्य॑ । धी॒री । इत॑रा: । ज॒ही॒ता॒त् ॥१.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
परेहि नारि पुनरेहि क्षिप्रमपां त्वा गोष्ठोऽध्यरुक्षद्भराय। तासां गृह्णीताद्यतमा यज्ञिया असन्विभाज्य धीरीतरा जहीतात् ॥
स्वर रहित पद पाठपरा । इहि । नारि । पुन: । आ । इहि । क्षिप्रम् । अपाम् । त्वा । गोऽस्थ: । अधि । अरुक्षत् । भराय । तासाम् । गृह्णीतात् । यतमा: । यज्ञिया: । असन् । विऽभाज्य । धीरी । इतरा: । जहीतात् ॥१.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 13
विषय - नारी का कार्यों में लगे ही रहना
पदार्थ -
१. हे (नारि) = गृहकार्यों का प्रणयन करनेवाली गृहपनि! तू (परेहि) = [परा इहि] कार्यवश बाहर अवश्य जा, परन्तु (क्षिप्रं पुनः एहि) = शीघ्र ही फिर लौटने की कर-सहेलियों में ही गप्पें न मारती रह। उन्हीं की गोष्ठी में न बैठी रह, चूँकि (अपां गोष्ठः) = कर्मों का समूह (भराय) = भरण करने के लिए (त्वा अध्यरुक्षत) = तेरे सिर पर आरूढ़ है। तेरे सिर पर गृहकार्यों का बोझ विद्यमान है उन सब कर्तव्यों को भी तो तुझे निभाना है। २. (तासाम्) = उन कर्मों में (यतमाः यज्ञियाः असन्) = जितने यज्ञिय [पवित्र] कर्म हैं, उनको तू (गृह्णीतात्) = ग्रहण कर, उन कर्त्तव्यों के पालन में यलशील हो। (धीरी) = बुद्धिमती तू (विभाज्य) = अच्छे व बुरे कर्मों को अलग-अलग करके (इतरा:) = जो शुभेतर अशुभ कर्म हैं उन्हें (जहीतात्) = छोड़ दे।
भावार्थ -
गृहपनी कार्यवश घर से बाहर जाए भी तो शीघ्र ही लौट आये, क्योंकि उसके सिर पर तो कर्मों का बड़ा भार लदा है। यह यज्ञिय कर्मों को स्वीकार करे और बुद्धिमती होती हुई अशुभ कर्मों का परित्याग कर डाले।
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