अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 16
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्मौदनः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त
अग्ने॑ च॒रुर्य॒ज्ञिय॒स्त्वाध्य॑रुक्ष॒च्छुचि॒स्तपि॑ष्ठ॒स्तप॑सा तपैनम्। आ॑र्षे॒या दै॒वा अ॑भिसं॒गत्य॑ भा॒गमिमं तपि॑ष्ठा ऋ॒तुभि॑स्तपन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । च॒रु: । य॒ज्ञिय॑: । त्वा॒ । अधि॑ । अ॒रु॒क्ष॒त् । शुचि॑: । तपि॑ष्ठ: । तप॑सा । त॒प॒ । ए॒न॒म् । आ॒र्षे॒या: । दै॒वा: । अ॒भि॒ऽसं॒गत्य॑ । भा॒गम् । इ॒मम् । तपि॑ष्ठा: । ऋ॒तुऽभि॑: । त॒प॒न्तु॒ ॥१.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने चरुर्यज्ञियस्त्वाध्यरुक्षच्छुचिस्तपिष्ठस्तपसा तपैनम्। आर्षेया दैवा अभिसंगत्य भागमिमं तपिष्ठा ऋतुभिस्तपन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । चरु: । यज्ञिय: । त्वा । अधि । अरुक्षत् । शुचि: । तपिष्ठ: । तपसा । तप । एनम् । आर्षेया: । दैवा: । अभिऽसंगत्य । भागम् । इमम् । तपिष्ठा: । ऋतुऽभि: । तपन्तु ॥१.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 16
विषय - आर्षेयाः, दैवाः, तपिष्ठाः
पदार्थ -
१.हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव! (यज्ञियः चरु:) = [चरु: ओदन:-श०४।४।२।१] यज्ञरूप [पुजनीय] प्रभु से प्राप्त होनेवाला यह ब्रझौदन [ज्ञान का ओदन] (त्वा अधि अरुक्षत्) = तुझपर अधिरूड़ हो-तू ब्रह्मौदन प्राप्त करने को अपना मुख्य कर्तव्य समझ। यह (शुचिः) = जीवन को पवित्र बनानेवाला है, (तपिष्ठः) = अत्यन्त दीस है। इस ब्रह्मौदन से मानवजीवन पवित्र व दीप्त बनता है। (तपसा) = तप के द्वारा-तपस्वी जीवन के द्वारा-भोगों में एकदम अनासक्त जीवन के द्वारा (एनं तप) = इस ब्रह्मौदन को अपने में दीस कर। २. (आर्षेया:) = [ऋषिर्वेदः, तस्य इमे] वेद [ज्ञान] के प्रति रुचिबाले, (दैवा:) = देव प्रभु के उपासक (तपिष्ठा:) = तपस्वी जीवनवाले व्यक्ति (अभिसंगत्य) = एकत्र होकर-चारों ओर से सभा में सम्मिलित होकर-(इमं भागम्) = इस भजनीय वेदज्ञानरूप चरु को (ऋतुभि:) = अपनी-अपनी नियमित गतियों के द्वारा (तपन्तु) = दीप्त करनेवाले हों। 'आर्षेय, दैव, तपिष्ठ' लोग ही पुरुषार्थ के द्वारा इस ब्रह्मौदन [यज्ञिय चरु] का परिपाक कर पाते हैं।
भावार्थ -
हम ज्ञान-प्राप्ति को ही अपना सर्वोपरि कर्तव्य समझें। यह हमारे जीवन को पवित्र व दीप्त बनाता है। तप के द्वारा ही हम ज्ञानदीत बनते हैं। ज्ञानरुचिवाले, उपासक व तपस्वी बनकर हम सभा में एकत्र होकर, पुरुषार्थों होते हुए, इस भजनीय ज्ञान का सेवन करें।
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