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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 1/ मन्त्र 29
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मौदनः छन्दः - भुरिग्विराड्जगती सूक्तम् - ब्रह्मौदन सूक्त

    अ॒ग्नौ तुषा॒ना व॑प जा॒तवे॑दसि प॒रः क॒म्बूकाँ॒ अप॑ मृड्ढि दू॒रम्। ए॒तं शु॑श्रुम गृहरा॒जस्य॑ भा॒गमथो॑ विद्म॒ निरृ॑तेर्भाग॒धेय॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नौ । तुषा॑न् । आ । व॒प॒ । जा॒तऽवे॑दसि । प॒र: । क॒म्बूका॑न् । अप॑ । मृ॒ड्ढि॒ । दू॒रम् । ए॒तम् । शु॒श्रु॒म॒ । गृ॒ह॒ऽरा॒जस्य॑ । भा॒गम् । अथो॒ इति॑ । वि॒द्म॒ । नि:ऽऋ॑ते: । भा॒ग॒ऽधेय॑म् ॥१.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नौ तुषाना वप जातवेदसि परः कम्बूकाँ अप मृड्ढि दूरम्। एतं शुश्रुम गृहराजस्य भागमथो विद्म निरृतेर्भागधेयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नौ । तुषान् । आ । वप । जातऽवेदसि । पर: । कम्बूकान् । अप । मृड्ढि । दूरम् । एतम् । शुश्रुम । गृहऽराजस्य । भागम् । अथो इति । विद्म । नि:ऽऋते: । भागऽधेयम् ॥१.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 29

    पदार्थ -

    १. (तुषान्) = तुषवत् [भूसी की भौति] तुच्छ प्रकृति के मनुष्यों को (जातवेदसि अग्नौ) = ज्ञानी अग्रणी राजा में (आवप) = फेंक। तुच्छ प्रकृति के दुष्ट पुरुषों को राजा को सौंप देना चाहिए। (एतम्) = इसे (गृहराजस्य) = घरों के रक्षक-राष्ट्रगृह के शासक राजा का (भागं विद्म) = भाग जानते हैं। राजा इन्हें अपनी अधीनता में करके उचित दण्डादि देता हुआ ठीक प्रकृति का बनाने का प्रयत्न करता है। २. (कम्बूकान्) = [plunderer] लुटेरों का (पर:) = परस्तात् (दूरम् अपमृड्ढि) = सुदूर सफ़ाया कर दे। इन्हें राष्ट्र से पृथक् कर देना ठीक है। (अथो) = और इन लुटेरों को (निर्ऋते:) = दुर्गति का (भागधेयम् विद्म) = भाग जानते हैं। इन्हें कष्टमय स्थिति में प्रास कराना ही ठीक है।

    भावार्थ -

    राजा को चाहिए कि तुच्छ प्रकृति के दुष्ट पुरुषों को उचित दण्ड आदि द्वारा ठीक प्रकृति का बनाने का प्रयत्न करे-उन्हें ज्ञान देने की व्यवस्था के द्वारा आगे बढ़ाने का प्रयत्न करे [जातवेदस, अग्नि]। लुटेरों को तो राष्ट्र से दूर ही कर दे-उनका कष्टमय स्थिति में होना ठीक ही है।

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